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बुढ़ापे का दर्द - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

बुढ़ापे का दर्द

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बुढापे का दर्द
विधा: परिचर्चा
स्थान:श्यामनाथ गोयनका सोसायटी का सामूहिक भवन
सेक्रेटरी: भुवन गुप्त
ट्रेसरार:मनु महादेव
सीनियर मेम्बर:रिटा.कर्नल हरप्रीत सिंह, शोभना दास, नुपुर बसु
भुवन गुप्त: नमस्कार मित्रो,मैं, इस सोसाइटी का सेक्रेटरी, आपका आज इस सामूहिक भवन में स्वागत करता हूं। आज हम सब यहां एक गंभीर विषय पर चिंतन,मनन और परिचर्चा के लिए इकट्ठा हुए हैं, और जैसा कि आपको सूचित किया जा चुका है ,आज का विषय है,"बुढ़ापे का दर्द"।
रिटा.कर्नल हरप्रीत सिंह: आपने बहुत सही समय पर हम सब को यहां एकत्र किया है।मुझे कल ही अपनी बहू से पता चला है कि केसरी शर्मा अपनी माता जी को वृद्धाश्रम भेजने की तैयारी कर रहे हैं।
शोभना दास: यह तो सचमुच दुख का विषय है।यहकॉलोनी हम लोगों का परिवार है।हम अपने परिवार के किसी भी सदस्य को इस तरह वृद्धावस्था में त्याग नहीं सकते।
नुपुर बसु: आपने बिल्कुल सही कहा, और हम कैसे भूल जाते हैं कि बुढ़ापा एक दिन सबको आना है। आज जो हमारे बच्चे देखेंगे,उसका अनुकरण करेंगे और हमें भी वृद्ध आश्रम का रास्ता दिखाएंगे।
मनु महादेव: मित्रो,मनुष्य जीवन की तीन अवस्थाएं हैं, बचपन जवानी और बुढ़ापा। बचपन हंसी-खुशी, खेलकूद में माता-पिता के संरक्षण में बेफिक्री में बीत जाता है। युवावस्था पारिवारिक जिम्मेदारियों के निर्वहन में और अन्य दायित्व निभाते हुए बीतती है ।उस समय शरीर बलवान होता है शारीरिक परेशानियां नहीं होती, या होती भी हैं, तो उनका एहसास कम होता है ,तब व्यक्ति अपने परिवार के साथ हंसी-खुशी जीवन बिताता है।किंतु बुढ़ापा एक ऐसी अवस्था है, जहां शारीरिक व्याधियां, मानसिक चिंताएं और यदि दुर्भाग्यवश साथी ने साथ छोड़ दिया है तो अकेलेपन का दर्द बहुत कष्ट कर होता है। ऐसे में यदि अपने खुद के बच्चे मुंह मोड़ लें, तो इससे अधिक दुर्भाग्य क्या हो सकता है!

शोभना दास:बहुधा इस भागदौड़ भरी जिंदगी में बहुत बेटा-बेटी, सारे नाते- रिश्तेदार होते हुए भी वृद्ध स्वयं को अकेला पाते हैं क्योंकि उनके पास बैठने का, उनसे बातें करने का समय बच्चे नहीं निकाल पाते या निकालना नहीं चाहते।इसके कई कारण हो सकते हैं।
वैसे देखा जाए तो यदि अंतरमन से स्नेह और अपनापन है, तब आपसी समझ भी होती है और यह बातें विशेष मायने नहीं रखतीं।
यह सच है कि हर व्यक्ति चाहता है कि उससे सब बातचीत ,हंसी मजाक करें, ऐसा ऐसा संभव ना होने पर मनमुटाव बेवजह का तनाव और दुःख होता है। क्रमशः...

भाग.२

मनु महादेव: यदि हमने अपने बच्चों में उचित संस्कार बचपन से ही आरोपित किए हैं, तो वे मां-बाप की किसी भी अवस्था में उपेक्षा नहीं करते। समस्या केवल सामंजस्य की हो जाती है।वृद्धावस्था में व्यक्ति अड़ियल या कहें कि जिद्दी होकर बच्चों के भांति अपनी और ध्यानाकर्षण का लालसी हो जाता है।हमें शर्मा जी से भी बात करके देखना चाहिए कि आखिर उन्होंने इतना कड़ा निर्णय कैसे ले लिया है।

नुपुर बसु: हां ताली दो हाथ से ही बजती है। हमें उनसे अवश्य बात करनी चाहिए। उनकी माता जी को भी समझाने का प्रयास करेंगे
थोड़ी सूझबूझ के साथ 'बुढ़ापे का दर्द 'नामक समस्या का समाधान अवश्य ही मिल जाएगा।

रिटा.कर्नल हरप्रीत सिंह: बुजुर्गों को आन्तरिक प्रसन्नता और संतुष्टि मिले तो उनका वक्त आसानी से गुजरता है।शारीरिक दर्द निवारण की तो दवाई होती है, किंतु मानसिक दर्द से खुद ही उबरना होता है।उनको इसके लिए अपनी सोच और जिंदगी में बदलाव लाना होगा।

शोभना दास: दरअसल उनका स्वास्थ्य भी अच्छा नहीं रहता।स्वास्थ्य अगर अच्छा है तो सब कुछ अच्छा है।वे अपने स्वास्थ्य के प्रति सजग भी नहीं रहीं। व्यायाम और योग द्वारा मानसिक और शारीरिक दोनों ,स्वास्थ्य उत्तम रहते हैं। आत्मविश्वास,आत्मनिर्भरता व आत्मसम्मान अच्छे स्वास्थ्य से मिलते हैं।

भुवन गुप्त: साथियो,जीवन का एक-एक क्षण भरपूर जीना और यह याद रखना कि दुनिया में अकेले आए थे, अकेले ही जाना है, कोई साथ नहीं रहता,संग नहीं जाता। इसलिए किसी तरह का मलाल नहीं रखना चाहिए।परिवार से,बच्चों,से सगे- संबंधियों और नाते- रिश्तेदारों से अपेक्षाएं रखने से बेहतर है कि स्वयं को समाज और समय के अनुकूल ढालने का प्रयास करते रहें।अकारण ही दुविधा और आशंका में समय बिताने से बेहतर है अपनी क्षमताओं को पहचाने उनका ह्लास होने से बचाएं।

शोभना दास: आपका कहना अपनी जगह बिल्कुल सही है मगर तात्कालिक समस्या का हल होना चाहिए । हमें शर्मा जी को हर हाल में अपना निर्णय बदलने के लिए मनाना चाहिए।

सेक्रेटरी: मित्रो,आज की इस सभा का समापन हम यही करते हैं और मैं चाहूंगा कि हम सभी शर्मा जी के यहां चलकर उनसे बातचीत करें। बहुत-बहुत धन्यवाद।
मौलिक
गीता परिहार
अयोध्या

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Sarita Singh Singh

Sarita Singh Singh 3 years ago

जी सुंदर परिचर्चा

दादी की परी
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