कहानीलघुकथा
कड़ाके की ठंड और कुहासे की वजह से आगे का कोई भी दृश्य आँखों से दिखाई नहीं दे रहा था। ठंड से ठिठुरता दीनानाथ खुद से अनगिनत प्रश्न करते हुए अपने कदमों को खेत की ओर बढ़ाये जा रहा था। किटकिटाती ठंड , बढती उम्र और ऊपर से बीमारी की वजह से काँपते हुए उसके कदम कभी-कभी रुक जाते और मन में कई प्रश्न हिलोरे मार रहे थे.. प्रश्न भी ऐसे.. जो उसे आगे बढने के लिए मजबूर कर रहे थे। आखिर मुनिया की शादी के लिए धन इक्ट्ठा करना और मुन्ने की पढ़ाई के खर्च की ज़िम्मेदारी, भी तो उसको ही पूरी करनी है। खैर उसकी पीड़ा से प्रकृति भला क्यों चिंतित होगी? धन,संपत्ति और तमाम भौतिक सुख सुविधाओं से पूर्ण लोगों को भी उसकी पीड़ा नहीं दिख सकती है।
किसी तरह दीनानाथ अब खेतों में काम पर पहुँच चुका था। कुदाल से माँ धरती को घायल करता हुआ वह रोने लगा। उसकी आँखों के आँसू माँ धरती का आँचल भिगो रहे थे। चिंताओं ने उसे जिंदा लाश बना कर रख दिया था। अपनी पीड़ा कहे भी तो किससे कहे? इस दुनिया में भौतिक सुख सुविधाओं के खरीददार तो हैं, पर किसी का ग़म कोई नही खरीदता यहाँ..बल्कि गम खरीदना तो दूर सहारा देना भी ज़रुरी नहीं समझता। प्रकृति तो समय-समय पर रंग दिखाती ही है साथ में इंसान भी अपना रंग दिखाते हैं। गरीबी से जूझ रहे लोग तो जी भरके जी भी तो नही पाते हैं...हाँ असमय मौत ही उनके दरवाजे पर ज़रूर पहुँच जाती है! पर मौसम कोई भी हो, वह हार नही मानेगा,ज़्यादा से ज़्यादा मेहनत करेगा.. सोचते ही उसके हाथ दोगुनी ताकत से कुदाल चलाने लगे!
©कुमार संदीप
मौलिक, स्वरचित