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फौजी - Vinay kumar Mishra (Sahitya Arpan)

कहानीअन्य

फौजी

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  • 15 Min Read

स्वतंत्रता दिवस पर एक रचना

#फौजी

मैं उसकी माँ हूँ पर उसने मुझे कभी माँ नहीं कहा। शादी के एक साल बाद ही मैंने इसे जन्म दिया। गीता दीदी की कोई संतान नहीं थी। वो इसे सीने से लगाये रहती, जब भूख से रोता तो मेरे पास ले आती। मैं छोटी बहू थी तो घर में घूँघट मेरी ही सबसे बड़ी होती थी। बिना ज्यादा किसी से मन की बात किये चुपचाप अपने काम निपटाती।अपने बच्चे को खिलाने का, पास सुलाने का, दुलार करने का मन कैसे नहीं होता,मगर जब भी मैं दीदी से कुछ कहती तो
"गीता दीदी! रोहन को जरा दीजिये ना आज आया नहीं बहुत देर से"
"तुम्हारा ही बच्चा है पूरबी, मुझ अभागन का तो है नहीं, क्या हुआ अगर थोड़ी देर मैं रख लेती हूँ। ये जब पास रहता है तो एक माँ होने का एहसास मुझे भी होता है"
उस वक़्त ऐसी बातों का जवाब सिर्फ अपने ममता का गला घोटना ही था मेरे लिए।
रोहन अब थोड़ा बोलने लगा था। ठुमक कर चलने लगा था।
दीदी को माँ कहता और मुझे चाची।ठुमक कर चलता तो मैं दौड़ कर कभी बाहें फैला देती वो भाग कर दीदी के आँचल में छुप जाता।आँखे छलक जाती थी चेहरे पर झूठी हँसी लाने और अपनी हार छुपाने में।
ये जब फौज से छुटियों में आते तो अपनी मन की बात कहती पर
"हमारा बच्चा कितना किस्मत वाला है कि उसकी दो दो माएँ हैं। वैसे भी पूरबी! भैया के शहीद होने के बाद भाभी को जीने का एक सहारा दे दिया है तुमने"
अजीब कशमकश थी। दीदी के बारे में सोचती तो उनसे सहानुभूति होती। और खुद के बारे में सोचती तो एक माँ का माँ ना होने का घुटन महसूस करती।रोहन जैसे जैसे बड़ा हो रहा था दीदी और उसका रिश्ता गहरा।मैं उसके लिए पराई चाची जैसी। ऐसा नहीं था कि रोहन मेरे पास आता नहीं था।
"चाची! लगता है माँ आँगन में है, आप ही कुछ खाने को दे दो"
"पहले मुझे भी एकबार माँ कह दो बेटे"
मैं खाना परोसते मारे खुशी के रो पड़ती जब भी वो मेरे पास आता मगर मेरा ये मनुहार उसे अच्छा नहीं लगता था
"मैं इसलिए तुम्हारे पास नहीं आता चाची! ये कैसी ज़िद है? मेरी माँ है ना, क्यूँ बोलूं तुम्हें माँ"
वो चिढ़कर बिना खाये ही दीदी के पास चला जाता।मैं उसके छोड़े निवाले हाथों में लिए उसे दीदी की गोद में खाते देखती।
मैंने ये ज़िद भी उसकी खुशी के लिए छोड़ दिया।
जब दुनिया में कोई ना हो तो अकेला रहना शायद उतना नहीं खलता जितना एक सुहागन का बिना उसके पति के और एक माँ का बिना उसके बच्चे के रहना।
इस फौजी घर में सबसे कमजोर कलेजा मेरा ही था। बात बात पर रो देती थी। मगर उस दिन मेरे आँसू सूख गए थें जब ये भी तिरंगे में लिपटे घर आये थे।
मगर आज फिर आँखे भरी हुई हैं।रात भर सोई नहीं। कलेजा फटा जा रहा है। मेरा रोहन भी आज डयूटी जॉइन करने फौज में जा रहा है। इस घर में दो दो शहीदों को देख मैं कभी नहीं चाहती थी कि मेरा बेटा फौजी बने। पर वो मुझ कमजोर दिल का बेटा है कहाँ वो तो गीता दीदी का बेटा है जिन्हें ना जाने क्यूँ अब भी फौज से इतनी मोहब्बत है।
"पूरबी रोहन जाने वाला है, कमरे से निकलो तो" गीता दीदी की आवाज दिल चिर रही थी। मैं उसे जाते हुए नहीं देखना चाहती। तभी रोहन की आवाज से ना जाने क्या हुआ
"चाची! अब से आपको चाची नहीं कहूँगा, दरवाजा तो खोलो" मैं बेसुध दौड़ पड़ी
"क्या कहा? मैं पागलों की तरह उसे देख रही थी
"हाँ माँ! तुम मेरी माँ हो।अब आशीर्वाद तो दे दे। जल्दी ही लौट आऊंगा"
मैं फूट फूटकर रो पड़ी
"और रो क्यूँ रही है? जहां दो माँओं की दुआ हों वहाँ दुश्मन की गोलियां असर नहीं करती।"
उसे जाते देख आज हमदोनों माँओं के मुँह से एक साथ ही गर्व से निकल पड़ा..जय हिंद!

विनय कुमार मिश्रा

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Kumar Sandeep

Kumar Sandeep 3 years ago

आपको हर रचना उम्दा होती हैं सर

Gita Parihar

Gita Parihar 3 years ago

बढ़िया सृजन

Sudhir Kumar

Sudhir Kumar 4 years ago

विलक्षण

Sudhir Kumar

Sudhir Kumar 4 years ago

जय हिन्द

teena suman

teena suman 4 years ago

बेहतरीन रचना

दादी की परी
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