कविताअतुकांत कविता
कब तक ?
दो विपरीत ध्रुवों का मिलना और
तय होना एक लंबे सफर का,
दो विपरीत ध्रुवों का मिलाप ?
असंभव है,
भौगोलिक दृष्टि से
समाज में उदाहरण बिखरे पड़े हैं यत्र- तत्र
कि
दो विपरीत विचार सोच- समझ के जीव,
खे रहे हैं जीवन की नैया,
नाव तो हिचकोले खा रही है ,
क्या सरल है, सहज है उसका नियंत्रित गति से चलना?
एक है दरिया सा गहरा, दूजा अधीर और चंचल,
सामंजस्य बैठाये रखना एक संघर्ष है,
निरंतर खुद को खुद से टकराना पड़ता है ,
हर पल
रे मन ,क्यों नहीं उन्मुक्त हो जाता ?
क्या चुनौतियों का भय है ?
क्या हौसलो की कमी है ?
क्या भय है समाज का ?
समाज !
एक प्रश्न चिन्ह !
वही प्रश्न, यक्ष प्रश्न, आखिर क्यों ?
क्यों नहीं शक्ति जुटा पाता इस समाज से लड़ने की ?दो-दो हाथ करने की?
क्यों ?
जानता है समाज, परपीड़ा से प्रसन्न होता है,
क्या, इसी कारण तुम उसे उस प्रसन्नता से वंचित रखना चाहते हो ?
होते रहते हो स्वयं पीड़ित ,संतप्त ?
कर चुके हो अपनी हथेलियों को लहूलुहान थामें -थामें सामंजस्य की बेड़ियों को
चेहरा विकृत हो चुका है, ओढ़ी हुई फीकी मुस्कान से किंतु कब तक ?
कब तक ?
मौलिक
गीता परिहार