कहानीसंस्मरणलघुकथा
सोचती रहती हूँ बीते दिनों को । आज तो उम्र का ढलान आगया । एक लड़की जब अपने बचपन के दिन छोड़ कर युवावस्था में आती है नये नये सपने देखती है। अपने सपने तो पता नहीं कब खो जाते हैं। बस एक कसक रह जाती है। धीरे धीरे वह फंस जाती है गृहस्थी के मकड़ जाल में पर उसमें ही वह खुश रहती है।
वह धुरी होती है परिवार की सुबह से लेकर रात तक अनेक जिम्मेदारी होती है उसके कन्धों पर । मेरे लिये जिन्दगी आसान नहीं रही । सब जिम्मेदारी निभाते निभाते अब निजात पाई कि नया संकट सामने आगया पतिदेव को हार्ट अटैक । बच्चे सब बाहर पर पता ना मै कब इतनी मजबूत हो गयी कि मैने पति को भी उस बीमारी से उबारा और उनको बहुत सशक्त बन कर जीने की प्रेरणा दी । अब सब कुछ सही चल रहा था कि इस महामारी ने मुझे ही मानसिक अवसाद में ला दिया । अब पतिदेव मेरी हिम्मत बन गये । लाक डाउन बाहर का सन्नाटा मुझे दिन पर दिन अवसाद में ढकेल रहा था । मुझे पढने का बहुत शौक था। पतिदेव ने सारे उपन्यास सामने रखे और कहा पुराने दिनों की कल्पना में लौट आओ और लिखना शुरू करो बस हिम्मत करके लिखना शुरू किया आज मेरी कहानियाँ और कविताएँ ई पत्रिकाओं और समाचार पत्रों में छपने लगी ।
धन्यवाद मेरे जीवन साथी जिन्होंने मेरी पहचान
" मुझसे" करवाई । आज मेरे लेखन को मेरे बच्चे भी पसंद करते हैं और मित्र भी और मै मानसिक अवसाद से भी बाहर आगयी लगता है अभी मेरे परिवार को मेरी बहुत जरुरत है।
डा. मधु आंधीवाल एड.
बहुत ताकतवर व्यक्तित्व है आपका मेम। यूं ही लिखते रहिए
Thanks