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नदी की अभिलाषा - राजेश्वरी जोशी (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

नदी की अभिलाषा

  • 570
  • 5 Min Read

नदी की अभिलाषा
हे मानव! मैं स्वच्छ,नदी ही रहकर,
इस धरा पर बहना चाहती हूँ।
शिशु की निर्दोष हँसी सी मैं भी,
हरदम निर्मल रहना चाहती हूँ।

सूखे निराश खड़े पेड़ों को मैं ,
फिर से हरियाना चाहती हूँ।
थके हुए उदास पथिक की,
प्यास बुझाना चाहती हूँ।

चाहे कितना भी दुःख हो मेरा,
जग का जीवन चाहती हूँ।
ऊबड़- खाबड़ रास्तों से बहती,
सबकी सेवा करना चाहती हूँ।

लेकिन फैक्टरी के गंदे जल से,
मैं बहुत ही घुट जाती हूँ ।
मुझ में कूड़ा तुम मत डालो ,
मैं भी तो जीना चाहती हूँ।

तेरे अत्याचारों को सहकर,
रणचंडिका मैं बन जाती हूँ।
मंदाकिनी सी फिर उफनाकर,
केदारनाथ सी त्रासदी लाती हूँ।

विनाश की इस लीला से मैं,
मन ही मन बहुत पछताती हूँ।
मृत्यु के मचे इस तांडव से,
दुखी बहुत हो जाती हूँ।

हे मानव !मैं पहाड़ी बाला सी,
हरदम हँसना चाहती हूँ ।
कल- कल, छल- छल करती,
मैं हरदम बहना चाहती हूँ।

हे मानव !मैं शांत नदी ही रहकर,
अविरल बहना चाहती हूँ।
मुझ में कूड़ा तुम मत डालो,
मैं भी तो जीना चाहती हूँ।
ये स्वरचित है।

राजेश्वरी जोशी,
उत्तराखंड

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शिवम राव मणि

शिवम राव मणि 3 years ago

बढ़िया

Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

सुंदर

राजेश्वरी जोशी3 years ago

??धन्यवाद आदरणीय

प्रपोजल
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