कवितानज़्म
नमी आँख की मैं, छुपाने चला हूँ,
तुझे आज फिर से, भुलाने चला हूँ।
तुम्हारी छुअन से, बदन पे पड़े जो,
निशां वो पुराने, मिटाने चला हूँ।
परिंदे को डर है, रुला तो न देगी,
नई शाख फिर से, उड़ा तो न देगी।
इसी डर को लेकर, मैं टूटा समंदर,
किनारों से दूरी, निभाने चला हूँ।
नमी आँख की मैं, छुपाने चला हूँ,
तुझे आज फिर से, भुलाने चला हूँ।
नज़र में ये कांटे, चुभाने लगे है,
तेरे खत मुझे यूँ, हराने लगे हैं।
चलो हार मानी, मैं हारा खिलाड़ी,
तेरे खत नदी में, बहाने चला हूँ।
नमी आँख की मैं, छुपाने चला हूँ,
तुझे आज फिर से, भुलाने चला हूँ।
डॉ उपवन 'उजाला'
उदयपुर, राजस्थान
9166475705
www.pandyaz.com