कवितागजल
रोटी
हँसाती कभी तो रुलाती ये रोटी।
जलन भूख की है मिटाती ये रोटी।
न हिंदू न मुस्लिम न कोई इसाई,
सभी को बराबर बनाती ये रोटी।
दिखे भीख को हाथ फैलाए बच्चे,
गरीबी में कितना सताती ये रोटी।
थके पाँव लेकर कभी घर जो लौटा,
सभी दर्द दिल के भुलाती ये रोटी।
कड़ी धूप में जब कमाते हैं दिन भर,
तभी घर गरीबों के आती ये रोटी।
बड़ी तब अमीरी से लगती गरीबी,
मुझे जब मेरी माँ खिलाती ये रोटी।
- विमल शर्मा'विमल'
Aa Ka Ek Katu Satya.. !
हृदयतल से अमित आभार आपका
बहुत... खूब...।
हृदयतल से अमित आभार आपका