लेखआलेख
एक व्यक्ति आम के पेड़ की छाँव में बैठकर विश्राम कर रहा था. पास के खेत में तरबूज की बेल थी. खाली दिमाग तो शैतान का घर होता ही है. एक अहंभाव मन में उपजा, " भगवान भी कभी-कभी कितने अजीबोगरीब काम करता है. इस छोटे से आम के लिए इतना भारीभरकम पेड़ और उस भारीभरकम तरबूज के लिए वह नाजुक सी बेल." . तभी उसके सिर पर एक आम टूटकर गिर पडा़ और उस छोटे से आघात ने उसे उसके प्रश्न का उत्तर दे दिया. " अगर तरबूज उसके सिर पर इतनी ऊँचाई से गिर पड़ता तो ? " एक छोटी सी चोट एक प्रश्नचिह्न लगाकर चली गई उसके अहं पर.
महाभारत का एक प्रसंग प्रस्तुत है. कृष्ण कुंती बुआ से विदा लेते हुए कुछ माँगने का आग्रह करते हैं. कुंती बुआ क्या माँगती है, जरा देखिये,
" जब भी मुझ पर विपत्ति आती है तो तुम मुझे बचाने आ जाते हो. मुझे आप इसी तरह विपत्ति देते रहो ताकि तुम ऐसे ही आते रहो. ".
रहीम लिखते हैं,
" रहिमन विपदा हूँ भली, जो थोड़े दिन होय
हित अनहित या जगत में, जान पड़त सब कोय "
शायद सुख में हम मद के झूले में इतना झूल जाते हैं कि यह स्मरण नहीं रहता कि इसकी डोर कितनी क्षणभंगुर है. आज एक अति सूक्ष्म विषाणु ने हमें तन,मन, धन से "त्राहि माम्" करवा दिया. क्या इस विपत्ति में भी महाकाल का कोई संदेश है.
सबसे पहले तन और मन की बात करें
हम आदिमानव से मानव और अब हाईटेक मानव बने. अपने मूल को भूल गये. बाहर से कितने भी सभ्य दिखें मगर मन से तो आदिमानव से भी अधिक नंगे हो गये हैं. " जिसकी लाठी, उसकी भैंस " करते-करते उस लाठी का भी भय नहीं रहा, जिसमें आवाज नहीं होती, केवल एक अप्रत्याशित आघात होता है. जिस थाली में खाया,उसी में छेद किया. प्रकृति हमारी माँ है और हम उसके बच्चे. हमारा बचपन हमें दूध पीने का अधिकार देता है, खून पीने का नहीं. मगर हमने दुग्धपान के साथ-साथ रक्तपान भी किया है. एक सोने का अंडा देने वाली मुर्गी समझकर हमने माँ का पेट चीरकर रख दिया है. एक कृतघ्न व्यभिचारी पुत्र की भाँति अपनी लिप्सा को संतुष्ट करने के लिए माँ का कलेजा चीरकर प्रस्तुत कर दिया.
हमारे शास्त्र कहते हैं,
" ईशावास्यमिदं सर्वं, यत्किज्जगत्यां जगत्
तेन त्यक्तेन भुंजीथ, मा गृधः, कस्यचिद्धनम् "
अर्थात्, इस धरती पर यह जो जगत है, इसमें ईश्वर का आवास है. उसके द्वारा छोडी़ गयी जूठन को प्रसाद रूप में ग्रहण करो. किसी दूसरे का भाग मत हड़पो.
जरा एक बार फिर अपने गिरेबान में झाँककर देखें कि हम सब इस मापदंड पर कितना खरा उतरते हैं.
हम कहते हैं , " दिल तो बच्चा है जी ". अजी, अपने दिल को सँभालिये और बच्चे को बदनाम न करें. कितना अच्छा होता यदि दिल सचमुच बच्चा बन जाता. वह घृणा की छुरी से अपनी माँ के टुकड़े नहीं करता. अपने पडौसी को अपना शत्रु नहीं समझता. मातृशक्ति को केवल "शयनेषु रंभा" न समझते. " पल में कुट्टी, पल में मेल ", प्यार की इस बेल पर उसके जीवन की रेल चलती है. हमारी सारी ऊर्जा छल, कपट, धूर्तता,शोषण और द्वेष की भेंट चढ़ जाती है और जीवन सब कुछ होते हुए भी चैतन्यशून्य बन जाता है.
अब धन की बात हो जाये. क्या यह केवल संयोग है कि कुछ महीने पहले अर्थव्यवस्था को खोलने की बात खेत और खलिहानों से प्रारंभ हो रही थी. कुछ वर्षों पहले तो कृषि-योग्य भूमि को अधिग्रहण करके किसान को मजदूर बनाने की बात चल रही थी. जो युवा अपने गाँव में परिश्रम न करके नगर में कुछ भी करने को तैयार थे, वे आज पैदल ही हजारों किलोमीटर चलकर गाँव की शरण में लौट रहे हैं. जी हाँ, उस जगदंबास्वरूपा प्रकृति ने हमें पटका तो है मगर फिर अपनी गोद में बिठा लिया है. यही माँ पुनः अन्नपूर्णा बनेगी. सुजला, सुफला, शस्यश्यामला बनेगी. खेत-खलिहान से ही विकास की नयी राह निकलेगी. ग्रामदेव एक बार फिर हरित क्रांति का अग्रदूत बनेगा. प्रकृति और विज्ञान को एक दूसरे का पोषक बनायें और फिर देखिये, बैलों के गले में बँध घुँघरू जीवन का कितना सुरीला राग सुनाते हैं मगर उसके लिए किसान को अन्नदाता समझकर उसे उसके हिस्से का मान- सम्मान देना होगा. भूखे भजन करने के लिए दूध से मक्खी सा बाहर ना फेंका जाये.
क्या हम काल के इस उद्घोष को समझकर युगबोध के चैतन्यदीप से अपने दिग्भ्रमित जड़ चिंतन को पुनः आलोकित करेंगे जो हम से कह रहा है, ना जाने कब से, " आ अब लौट चलें "
श्र
द्वारा : सुधीर अधीर