Help Videos
About Us
Terms and Condition
Privacy Policy
बड़े भाई साहब - Kamlesh Vajpeyi (Sahitya Arpan)

कहानीसंस्मरण

बड़े भाई साहब

  • 231
  • 21 Min Read

ेयादों के झरोखे से

*मेरे भाई साहब*

आज कल परिवार इतने छोटे होते हैं कि बच्चे ये बात कभी सीख ही नहीं पाते कि कैसे मिल जुल कर रहा जाता है।
अब तो ज्यादातर हिन्दू परिवारों में एक ही बच्चा होता है।वो कैसे किसी के साथ रिश्ते निभाना समझ पायेगा।
हम लोग दो भाई दो बहन थे।मेरे बड़े भाई मुझसे चार साल बड़े थे और बहन दो साल। छोटी बहन पांच साल छोटी थी।
मैं अपने भाई साहब के साथ ही ज्यादा रहता।उन्ही के दोस्तों के साथ क्रिकेट,बैडमिंटन, और इंडोर गेम खेलता।इस कारण मैं अपने दोस्तों से पढ़ाई छोड़ सब चीजों में आगे रहता।
हम लोग इतवार को घटे दर वाली हिंदी की पुरानी और अंग्रेजी की एडवेंचर पिक्चर देखने जाते।पर कभी कभी भाई साहब की करारी डॉट भी पड़ती।डॉट चाहे गलत बात पर भी पड़ रही हो मैं भाई साहब को जबाब नहीं देता था।ये आदत मैंने जब तक भाई साहब रहे तब तक निभाई ।
जेब खर्च को एक आना रोज मिलता था।उसी में अपने सारे शौक़ पूरे करने होते।जाहिर था तमाम छोटी छोटी इच्छाओं का त्याग करना पड़ता ।
भाई साहब जब बी, एस, सी, में थे तो उन्होंने 35 रुपये महीने की एक ट्यूसन करली।अब वह मुझे 5 रुपये हर महीने देने लगे।मेरी तो लाटरी लग गई।
हम लोगों में इतना प्यार था कि खाते हुये कोई भी आम ,खरबूजा या अमरूद बहुत मीठा निकले तो एक दूसरे के लीये आधा रख देते थे कि पता नहीं दूसरा फल इतना मीठा निकले या न निकले।
शादी के बाद भी भाई साहब अक्सर मुझे और छोटी बहन को पिक्चर साथ ले जाते।एक बार दार्जलिंग और कलकत्ता भी साथ ले गये।
मेरी भाभी का स्नेह भी परिवार के प्रति भाई साहब से कोई कम नहीं था।
मैंने 13,14 साल की उम्र में हिंदी साहित्य के बहुत से प्रसिद्ध लेखकों को पढ़ डाला था।इसका श्रेय भी भाई साहब को ही जाता है।सन 1961 में वह हिन्द पाकेट बुक्स घरेलू लाइब्रेरी योजना के सदस्य बन गये थे,जिसमें हर महीने 5 रुपये में 6 पुस्तकें डाक सहित आती थी।तभी मुझे विश्व के अन्य भाषओं के बड़े लेखकों को पढ़ने का अवसर भी मिला।
भाई साहब को टेक्निकल कामों का भी बहुत शौक़ था।इसमें वह बहुत कुशल भी थे।ये गुण उन्हें पिताजी से मिला था।
बहुत हद तक वह मेरे भाई के अतिरिक्त मेरे मित्र और गुरू भी थे।
सन 1977 में मेरी शादी हो गई।हम सब लोग सयुक्त परिवार की तरह बहुत वर्ष तक रहे। फिर भाई साहब का तबादला बाहर हो गया।उसके बाद जब 8,10 साल बाहर रहने के उपरांत भाई साहब लौट कर आये तब उन्हें बैंक की तरफ से तिलक नगर में बड़ा सा घर मिल गया।
जब भाई साहब बाहर थे तो अलग रहना मजबूरी थी पर एक ही शहर में रहते हुये अलग अलग रहना मुझे बहुत
अखरता था।पर अब इतने दिनों बाहर रहने के कारण भाई साहब के पास इतना घरेलु सामान हो गया था कि वह पुराने घर में आ ही नहीं सकता था।अब बच्चे भी बड़े हो गए थे।लिहाजा पिता जी ने उन्हें अलग रहने की स्वीकृति दे दी।
सन 1988 में आज़ाद नगर में हम लोगों ने साथ मिले हुये दो घर बनवा लीये।भाई साहब इसमें रहने आ गये सन 1993 में मैं भी अपने घर में आ गया।
बहुत वर्षी बाद भाई साहब के साथ फिर रहने का अवसर मिला।हम लोगों की बैठक फिर जमने लगी।खाना बनता तो अलग अलग था पर साथ खाने के अवसर भी बनते रहते।
अब तक घर मे तीसरी पीढ़ी बड़ी हो गई थी।जिनको लेकर कभी कभी कुछ अप्रिय हो जाता।मेरा बेटा मुझसे कहता "आप ताऊ जी को जबाब क्यों नही देते।क्यों सुन लेते हैं उनकी गलत बात।" उनकी बात कई बार गलत भी होती लेकिन मैंने कभी उनको जबाब देना उचित नहीं समझा।
एक दिन ऐसी ही किसी बात को लेकर मेरे बेटे ने कहा "क्यों डरते हैं आप ताऊ जी से क्या आप उनका दिया खाते हैं।"
उसकी ये बात सुन कर मुझे बहुत दुख हुआ।मैंने उससे कहा तुम्हें क्या पता कि भाई लोग आपस में किस तरह एक साथ रह कर बड़े होते हैं।
भाई का रिश्ता क्या होता है तुम्हें पता ही नहीं।
मैंने फिर उसे बताया तुम जिसे डरना कह रहे हो वह मेरा फ़र्ज़ बनता है।तुम्हे मालूम है भाई साहब जब 35 रुपये की ट्यूसन करते थे तब मुझे उसमें से 5 रुपये देते थे यानी अपनी कमाई का सातवां हिस्सा। इसके अतिरिक्त आज मैं जो कुछ भी बन पाया ये उनकी ही देन है।तुम्हे केवल उनकी डॉट दिखती है ,उनका प्यार कभी देखा है।तुम कहते हो आप क्या उनका दिया खाते हैं।आज भले न खा रहे हों पर खाया तो है उनका दिया।उसको अगर हम भूल जायें तो क्या ये सही बात होगी। उसके बाद मैंने उसे बहुत सी पुरानी ऐसी बातें बताइं जिन्हें सुनकर वह अचरज में पड़ गया।उसको पता ही नहीं था कि इतने प्यार से भी दो लोग रह सकते हैं।
मेरी सारी बातें सुनने के बाद उसने कहा" पापा जी आपकी बात बिल्कुल सच है।"
मेरे भाई इस दुनियां में नहीं हैं पर उनका प्यार भुलाये नहीं भूलता।सोचता हूँ अगर मैंने लड़के बच्चो को लेकर अपने भाई साहब से झगड़ा किया होता तो क्या जीवन इतनी सरलता और सुगमता से चल पाता। परिवार का ये सत्तर साल का समय कितने आनन्द पूर्वक निकल गया कुछ पता ही नहीं चला।

यायावर गोपाल खन्ना

inbound583175174086191728_1606921499.jpg
user-image
Sudhir Kumar

Sudhir Kumar 3 years ago

चैतन्यपूर्ण

Kamlesh Vajpeyi 2 years ago

जी. आभार 🙏

दादी की परी
IMG_20191211_201333_1597932915.JPG