कवितालयबद्ध कविता
डर रहा हूं मैं
अंधकार को देखकर
,उजाला खो जाने से डर रहा हूँ मैं
एक आहट हो जाने पर
सिसकियाँ भर ले रहा हूँ मैं
जरा-सी चोट लग जाने पर
गुमचोट का इंतजार कर रहा हूँ मैं
थोडा-सा प्यार पाने के लिए
अपने आप को दर्द दे रहा हूँ मैं
क्या करूं डर रहा हूँ मैं
आँखे बंद हो जाने पर कल को खोज रहा हूँ मैं
स्वप्ऩ मे डर को देखकर हिम्मत माँग रहा हूँ मैं
जागते-जागते
अपनी आँखों से नींद को ओझल कर रहा हूँ मैं
क्या करूं अब तो सोने से भी डर रहा हूँ मैं
दर्द पकडकर उसे
सलाखों में जकडने की कोशिश कर रहा हूँ मैं
खिडकी से बाहर देखकर
एक उम्मीद की राह खोज रहा हूँ मैं
एक जगह बैठे-बैठे बस यही सोच रहा हूँ मैं
कि दूसरो को देखकर अपने आप को कोस रहा हूँ मैं
या कल को याद करके अपने आप को खोद रहा हूँ मैं
क्या करूं आज से डर रहा हूँ मैं
धीर रख धीर खो जाने से डर रहा हूँ मैं
कहीं दम न निकल जाएं ,यह महसूस कर रहा हूँ मैं
कि एक आसमां का साया है
इसलिए धूप में भी चल रहा हूँ मैं
अब तो कदम बढ़ाने के लिए भी
एक हाथ तलाश रहा हूँ मैं
क्या करूं;
सांझ में भी अपने शरीर से छलकी हुई ,
धूप को खो जाने से डर रहा हूँ मैं……..
शिवम राव मणि ©