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लाॅकडाउन का एक दिन - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

लेखअन्य

लाॅकडाउन का एक दिन

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  • 13 Min Read

( आइये आज पढि़ये लाॅकडाउन में लिखा एक व्यंग्य )

कभी पढा़ था, " आषाढ़ का एक दिन ", मगर वह आषाढ़ सावन लेकर आता था. आज सावन की बात करूँ तो आप कहेंगे कि सावन के अंधे को सब हरा-हरा सूझता है. आज तो सब डरा-डरा ही सूझता है. सावन का अंधा होने से अच्छा है, इस अमावस से आँख मूँदकर अंधे बने रहें और इसे ही दिन समझें क्योंकि इस रात की कोई सुबह नहीं दिखाई दे रही. हाँ, एक दिन ही तो बन गया यह, एक लंबा दिन.अब तो समय भी दहलीज की लक्ष्मणरेखा में सिमटकर खुद की परिभाषा भूल सा गया है. यह कालचिंतन उस कालचिंतन में खोकर धुँधला गया है. दिन और रात का भेद खत्म सा हो गया है, इस कैद में बंद होकर. भगवान भास्कर कब दर्शन देते हैं और कब अंतर्ध्यान होते हैं, पता ही नहीं चलता. अब आफिस तो जाना है नहीं, जो बार-बार घडी़ देखनी पडे़. बाॅस कहता है, " घर से काम करो " और बीवी कहती है, " घर का काम करो ". इसलिए निद्रा देवी की गोद ही सर्वोत्तम विकल्प है. हाँ, भूख अपने समय पर प्रकट होकर जरूर कालचेतना जगा देती है.

हाँ, यह भूख, कोरोना की इस लक्ष्मणरेखा से बाहर एक गरीबी की रेखा खींच देती है. " भइ गति साँप छछूँदर केरी, इस जीवन की. यह लक्ष्मणरेखा कहती है, "बाहर मत आओ, चुपचाप अंदर सो जाओ, नहीं तो कोरोना आ जायेगा ". भूख वाली गरीबी की रेखा कहती है, " बाहर निकलो नहीं तो मैं निगल जाऊँगी. ". कभी जीवन का प्रश्न तो कभी पापी पेट का सवाल. इन दो पाटों के बीच फँसकर पिस रहा है लाॅकडाउन का यह एक एकांत अंतहीन दिन.

" मजबूर ये हालात इधर भी हैं,उधर भी ", अमिताभ जी का यह दर्द अब रेखा के बजाय, इन दोनों रेखाओं के बीच फँसी जीवन-रेखा पर आकर गठिया जैसा गठिया गया है. गले की हड्डी बन गया है.

अब यह दिन कितना लंबा होगा, यह तो विधाता को ही मालूम है. कहीं उनके अपने एक दिन जैसा लंबा हुआ तो उनको सृष्टि पुन: रचनी होगी. अब यह अजर-अमर कोरोना और इसकी यह शुरूआत मानसिक सृष्टि से होगी और उनके सबसे लोकप्रिय मानस-पुत्र वीणाधारी वाट्सप खुद ही कहते फिरेंगे, " नारद जी खबर लाये हैं ". फाॅलोअर भी मुश्किल से जुटाने पडे़ंगे, नेता की तरह थैली खोलकर और कवियों की तरह हथेली जोड़कर.

भगवान ना करे, ऐसा हो. आशा है, नारदजी की "नारायण,नारायण" से जागकर, शेषनाग का साथ माँगकर, लक्ष्मी से इजाजत का जुगाड़कर, क्षीरसागर को लाँघकर,
" यदा-यदा हि धर्मस्य " वाला अपना शाश्वत वचन निभायेंगे. महाकाल अपने भोले-भाले शिवरूप में आकर इस कालकूट को पीकर फिर नीलकंठ बन जायेंगे और महाकाली की राह में लेटकर उसका क्रोध मिटायेंगे. माँ जगदंबा अपने प्रकृति रूप के प्रति ,उसके बच्चों के अपराध को माफ कर, इस रक्तबीज का वेग अपने खप्पर में समेटकर जननी और अन्नपूर्णा रूप में आ जायेंगी.

आशा ही जीवन है. एक दिन यह लाॅकडाउन जरूर हमें अलविदा कहेगा मगर इससे यह मत पूछना," अतिथि,तुम फिर कब आओगे.


द्वारा : सुधीर अधीर

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शिवम राव मणि

शिवम राव मणि 3 years ago

वाह सर, बढ़िया लिखा

Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

हम तो यह कहेंगे अतिथि तुम फिर कभी न आना

समीक्षा
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