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राख के ढेर - Krishna Tawakya Singh (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

राख के ढेर

  • 146
  • 5 Min Read

राख के ढेर
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राख की ढ़ेर में हम चिंगारी ढ़ूँढ़ रहे हैं |
ऊँचे लोगों से भरी सीढ़ियों पर चढ़ने की बारी ढूँढ रहे हैं |
देखता हूँ उन्हें उकट उकट कर बार बार
कहीं तो मिले आग की धाह
पर इधर से उधर चढ़कर पार कर गया
न मिली उष्मा ,न मिला प्रकाश
बस कुछ झिलमिलाहट उन सीढ़ियों पर थी
जिसके इंच इंच पर ऊँचे लोगों ने कब्जा कर ऱखा था
पता चला यह झिलमिलाती सी रोशनी सितारों की है |
अब यहाँ कहाँ जलती है ,चिंगारी पैदा करनेवाले पत्थरों को |
इन्होंने अपनी मशीनों में धूल बना दिया है |
इनकी आँखों में सितारों की रोशनी चमकती है
और लोगों को इन्होंने फिजूल बना दिया है |
अखबारों के पन्नों पर बस इन्हीं के नाम छपते हैं
जो नहीं किए गए वो भी काम छपते हैं |
वक्ता भी वही ,विषय भी वही हैं |
गलत होते हम ,हर बार ठहराए जाते सही वही हैं |
हम बस ढूँढ़ रहे राखों के ढ़ेर में चिंगारी
चलते जाते हैं पर पहुँचते कहीं नहीं नहीं है |

कृष्ण तवक्या सिंह
07.11.2020

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Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

बहुत सुंदर

Krishna Tawakya Singh3 years ago

धन्यवाद

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

बहुत खूब

Krishna Tawakya Singh3 years ago

धन्यवाद !

वो चांद आज आना
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