कवितालयबद्ध कविता
धुँधलाई सी, भरमाई सी
अजीब सी एक शाम,
पगलाई सी, शरमाई सी
अजी़ज सी एक शाम,
कुछ खामोश सी होती,
पल-पल रोशनी खोती,
यूँ होती जाती खुदबखुद
गरीब सी एक शाम,
जाने या फिर अनजाने,
कुछ पहचाने, कुछ बिन पहचाने,
होती दिल के करीब सी एक शाम
अपनी सारी उजली आभा
करती चाँदनी के नाम,
चोरी-चोरी, चुपके-चुपके,
आसमान की नजरों से
यूँ छुप-छुप के,
लमहा-लमहा खुद में ही
खोती जाती,
होती जाती यूँ गुमनाम
अपना सब कुछ,
सारा वजू़द समेटकर,
खुद को गहराती सी रजनी के
काले आँचल में लपेटकर,
मानो खुद से ही
बिछुड़ती जाती है,
एक मासूम सी बच्ची बनकर
उसकी गोदी में दुबकती जाती है
पूनम के आँगन में
चाँद का आगमन,
दुग्ध धवल चाँदनी का,
बूँद-बूँद करता धरती का
कण-कण आचमन
रजतकणों को बरसाता,
पगलाता सावन,
रजनी की आँखों में चहका
एक स्वप्न सा मनभावन,
शरद पूर्णिमा सा पावन
महारास रचता वृंदावन
कुदरत का यह सरमाया,
लगता है, बनकर पराया,
बनकर एक अजब सा साया
उसकी बंद पलकों के
बाहर ही रह जाता है
फिर धीरे-धीरे उसका काजल
विरह-अश्रु में बह जाता है,
और फिर चुपके से आकर,
पंछियों का अभिनव कलरव
कानों में कुछ कह जाता है
हौले-हौले छँटता अँधियारा,
कदम बढा़ता प्रियतम प्यारा,
सूरज का फैला उजियारा,
कण-कण में बँटता सारा,
नयी सुबह की नयी कहानी
नयी किरण बन कह जाता है
नयी उमंगों की जवानी,
नयी तरंगों की रवानी
संग सुनहरा रंग बन
बह जाता है
संध्या का धुँधला रूप
उषा के सिंदूरी से साँचे में
ढलकर रह जाता है
ओस-बिंदु बन
फूलों पर ढलककर,
पिघले सोने सा
बूँद-बूँद बन छलककर,
धरती के हरे-भरे आँचल में
नवजात शिशु सा
पल-पल पलता जाता है
जगदंबस्वरूपा प्रकृति का
काली सा विकराल रूप,
बन उजली-उजली सी धूप,
माँ गौरी के गौरी के गौर वर्ण में
पल-पल ढलता जाता है
वह निराकार साकार बन,
नवजीवन का आधार बन,
धरती माँ का परिवार बन,
नवसृष्टि का व्यवहार बन,
ब्रह्म की माया का नव विस्तार बन,
अपनी अद्भुत शैली में
यूँ चलता जाता है
बन ममतारस सरसाती नदिया,
तन-मन को महकाती बगिया,
मंदिर में बन आरती का एक दिया,
बनकर जीवन-रथ का पहिया,
नये लक्ष्य की ओर बढ़ता जाता है
द्वारा : सुधीर अधीर