कविताअतुकांत कविता
--स्त्री का अस्तित्व --
हाँ मैं एक नारी हूँ!! मेरा भी अस्तित्व है!
मैं प्रकृति की वो अनमोल वरदान हूँ,
जिसके ''अस्तित्व'' के बिना,कभी कोई ''अस्तित्व'' नहीं होता,
हाँ ये शाश्वत सत्य है....
तो फिर जो नारी सृष्टि की रचयिता है,
उसे क्यों तलाशना पड़ता है अपना ''वज़ूद''?
उसे क्यों देखा जाता है हेय दृष्टि से?
उसे क्यों एक ''भोग्या'' के रूप में स्वीकारा जाता है?
एक पिता के लिए वो सामाजिक बोझ होती है!
तो एक माँ हर पल उसे संस्कारों की घुट्टी पिलाती है!
उठते बैठते उसके कर्तव्यों का बोध कराया जाता है!
याद है वो पल.....
जब एक बार पांव से भाई को मार दी थी
उसे दादी से कितनी डाँट पड़ी थी,....
अरे वंश को पैर लगाती है...
काट दूंगी पैर जो फिर पांव से छुआ तो.....
उस समय कहाँ समझ पायी थी इस बात का मतलब!
भाई तो हर वक्त पैर लगाता था
तो क्या नारी का ''अस्तित्व'' परे है उस पुरुष से?
जिस पुरुष का ''अस्तित्व'' स्वयं एक नारी पर निर्भर है!
भाई कभी नहीं चाहता बहन बाहर निकले।
नज़रे झुंका के रहो,किसी के बात का जवाब मत दो!
पराये घर की अमानत हो सऊर सीखो!
अब बड़ी हो रही हो कायदे से दुपट्टा लो!
उसके पश्चात भी पुरुष की पैनी धारदार नज़र
ढूंढ ही लेती है एक नारी में ''देह'' को
उन ''वासना'' भरी नज़रों से बिंघ जाती है नारी!
आहत होता है उसका ''अस्तित्व'' !
लेकिन उन्हें हिदायत रहता है नज़रें नीची करके चलो!
एक नारी कभी 'बेटी'' कभी ''बहन''
कभी ''बहु'' तो कभी ''सास'' का किरदार निभाती है!
पति के साथ हमबिस्तर बन कर
धर्मपत्नी का फ़र्ज़ भी निभाती है!!
फिर भी नारी को ही गुजरना पड़ता है ''अग्नि परीक्षा से''
नारी ही शापित हो ''पाषाण' बन जाती है।
फिर भी धन्य है नारी,''नमन है उसके''अस्तित्व''को!
क्यूंकि वो सबका मान रखती है!
फिर भी आज नारी का ''अस्तित्व'' ''शापित'' है
जिसे तलाश है हर नारी को!!
@ मणि बेन द्विवेदी
वाराणसी उत्तर प्रदेश
बढ़िया
जी सादर आभार
जी सादर आभार