कविताअतुकांत कविता
तारों को आंचल तक आना होगा
क्यों बैठी है सर को झुकाए, कमरे की बत्ती बुझाए?
आंखें क्यों चुराए ज़माने से, क्यों शरमाए क्यों घबराए?
दिल के खिड़की दरवाज़ों को, तू खोल दे हवा सरसराने दे,
कुछ गीत खुशी के गुनगुना, खुद को मुस्कुराने दे।
आसमां को कदमों में झुक जाना होगा, ज़रा ज़ोर तो लगा।
तारों को आंचल तक आना होगा, अपनी बाहें तो फैला।
क्यों रीतियां-कुरीतियां, बनी है सिर्फ औरत के लिए?
तूने हर एक को खुशी ही दी, और गम चुने खुद के लिए।
रूढ़िवादी विचारों को तू छोड़ दे, लकीर का फकीर ज़माना जिन पर चले।
अपने बुलंद हौसलों से लिख, तू खुद अपनी इबारतें।
जो तू चले तो जग चले, जो तू रुके जहाँ भी थम जाए,
अफवाहें, ताने, रोक-टोक सब कुछ पीछे छोड़ दे।
जो बुरी नजर से ताड़े हैं, उन आंखों को तू फोड़ दे ।
पौरूष का दम भरने वाला, अंधा समाज है भूल गया।
जननी भी तू, अग्नि भी तू, दुर्गा, लक्ष्मी, काली भी तू ।
जग तुझसे है तू जग से नहीं, सबको बतलाना होगा।
वो कहते हैं कि बेटा हो, क्योंकि वो घर का चिराग है।
औरत की कीमत वो ना जाने, जो दो घरों को रोशन करे।
मायके में खुशियां फैलाए, ससुराल का वंश बढ़ाए।
औरत का महत्तव क्या है, इनको समझाना होगा।
उड़ रंग बिरंगी तितली सी, हर फूल सजाना होगा।
आसमां को कदमों में झुक जाना होगा, तू जरा जोर तो लगा।
तारों को आंचल तक आना होगा, अपनी बाहें तो फैला।
निधि घर्ती भंडारी
हरिद्वार, उत्तराखंड