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आरव को लगा जैसे उस लड़की को घूरते हुए उसकी चोरी पकड़ी गई हो। कोच के गेट पर खड़ी वो खुदको आने वाली हवा से सूखा रही थी। जानती थी कई जोड़ी निगाहें उसके गिले कपड़ों के आर पार जा रही थी जो उसे परेशान किए हुआ था। उसका टूटा हुआ छाता अपनी नाकामी पर कोने में मुँह लटकाये पड़ा था।
" थैंक यू..तुमने हाथ ना थामा होता.. आई मीन.. मदद ना कि होती तो मुझे स्टेशन पर रात काटनी पड़ती.." उसने बात की तो आरव की हिम्मत वापस आई।
" इट्स ओके.. थैंक्स जैसा कुछ नहीं.. मैं समझ सकता हूँ, घर पहुंचना कितना जरूरी होता है.. तुमने घर पर बता दिया कि तुम सुरक्षित हो ?"
मुंबई है तो लहजे में तुम अपने आप अपनत्व लिए रहता है, इसलिए दिल जुड़ते भी जल्दी है।
" नहीं, दरअसल मेरे फोन की बैट्री गई या इसमे पानी गया पता नहीं.. बंद है बस "
" तुम मेरे से फोन से बता दो.. "
" रहने दो.. ऑफिस से निकली तो बताया था.. वैसे भी बाबा नाराज होंगे.. आज मना किया था जाने से। उनका कल ही नया नंबर लिया है तो मुझे जबानी याद नहीं है.. कोई नहीं पहुंच कर बाबा को मना लूँगी " वो खिलखिलाती हुई बोली।
कितनी प्यारी और निश्चल सी थी कि उसकी हँसी। आरव ने देखा शायद अब उसके चेहरे से नज़रे हटाना और मुश्किल हो रहा था। वो आकर अपनी सीट पर बैठ गया। जाने ऐसा क्या था इस लड़की में? पहले कभी उसने ऐसा महसूस नहीं किया था। मौसम का कसूर या सुबह सुबह आई की बड़बड़.. जो भी था मन भटक चला था। दादर आते ही वो भी सीट पर आकर बैठ गई। क्योंकि सब जानते थे यहाँ से लोगों का महा समुद्र चढ़ता है। ट्रेन जब दादर से निकली तो भर चुकी थी पर आम दिनों के हिसाब से अब भी खाली ही थी। आरव कभी कभी चोरी से उसे देख लेता जो कपड़े आधे सुख जाने के बाद भी बढ़ी हुई भीड़ में काफी असहज हो रही थी। गेंहुआ रंग, कमर तक लंबे बाल जो अब गिले होकर नाग जैसे शरीर को लिपट गए थे.. गुलाबी सूट और लहरिया चुन्नी.. कशिश ऐसी की आरव की नजरे उसके दिल के कब्जे में थी। ठाणे नजदीक आते ही ट्रेन धीमी और बरसात अपने चरम पर थी। धीरे धीरे गति धीमी हुई और ट्रेन स्टेशन से कुछ दूर ही रुक गई। पता चला कि प्लेटफॉर्म के सामने पटरियां पानी से भरी हुई है और ट्रेन आगे नहीं जा सकती कल सुबह तक।
कल सुबह तक?.. सारे लोग वहीं उतर गए और पैदल चल कर ठाणे स्टेशन की ओर बढ़े की शायद वहाँ से आगे जाने का कोई और साधन मिले । जनसैलाब में वो लड़की आरव की आँखों से ओझल हो गई। भारी मन और भारी कदमों से वो आगे बढ़ कर स्टेशन तक पहुंचा। पूरा भीग चुके आरव ने पहले चाय पीने का तय किया ताकि भीगे बदन को कुछ गर्माहट मिले। चाय की स्टाल पर चिर परिचित गुलाबी सूट दिखते ही उसका दिल वापस बल्लियों उछलने लगा।
" तुम?.. तुम गई नहीं बस लेने.. आई मीन मुझे तो पता भी नहीं तुम्हें जाना कहां है?.. यही ठाणे से हो क्या?"
" हाय! मेरा नाम आकृति है, और मैं डोंबिवली जा रही हूं.." कहकर वो फिर हँस पड़ी।
" दरअसल मैंने कोशिश की पर बाहर काफी पानी जमा है और कोई बस टॅक्सी नहीं है, तो समझदारी तो स्टेशन पर रुकने में ही है, वैसे भी बारिश और बढ़ चली है.. चाय से अच्छा कोई हमसफर नहीं और अब तुम दिख गए तो सच डर खत्म.. तुम्हारा नाम? "
आकृति ने अपनी बात कितनी आसानी से कह दी। आरव भी तो यही कहना चाह रहा था कि तुम नहीं दिख रही थी तो दिल डर रहा था कि फिर शायद इस भरे शहर में कभी ना दिखो।
" मैं आरव.. मैं कल्याण से "
चाय पीते हुए दोनों एक बेंच पर बैठ कर बाते करने लगे।
आरव ने उसे बताया कि उसका प्रमोशन हो चुका है और आज इस ऑफिस में आखिरी दिन था तो आना कितना जरूरी था वर्ना वो लोग एनओसी देने में चिल्लमचिल्ली करते। आकृति ने बताय की वो किसी प्रोजेक्ट पर काम कर रही है और घर में बाबा ने शादी की बात पर ज्यादा जोर दे रखा है तो वो चाहती है कि प्रोजेक्ट जल्दी खत्म कर ले।
दोनों की बातों की तान एक बुढ़े मांगने वाले ने तोड़ी।
" भाऊ एक वडा पाव दिला दो "
आरव ने उसे वडा पाव और चाय खरीद कर दे दी।
" बप्पा तुम दोनों का जोड़ी सलामत रखे "
ये क्या? उम्मीदों का नया बीज बो दिया मन की मिट्टी में। आकृति हँस पड़ी
" क्या बाबा, आप तो वडा पाव मैट्रीमोनियल साइट बन गए "
क्रमशः...
©सुषमा तिवारी