कवितालयबद्ध कविता
मां के नव- रूप
नवरात्रि में मां नव- रूप धरे,
हर रूप के अपने महत्व बड़े।
प्रथम रूप बनी हिमालय पुत्री,
मां कहलाई तुम शैलपुत्री।
हुई मां तुम वृषभ पर आरूढ़,
दाहिने हाथ में धरा त्रिशूल।
मूलाधार चक्र में योगिजन,
यहीं से साधना करते आरंभ।
दूसरे स्वरूप में तप की चारिणी,
कहलाई मां तुम तब ब्रह्मचारिणी।
स्वाधिष्ठान चक्र में साधक का मन,
रूप ज्योतिर्मय फलदायक अनंत।
अर्धचंद्र मस्तक पर घंटा,
तृतीय रूप कहलाई चंद्रघंटा।
कल्याणकारी, चक्र मनीपुर
स्वर्ण -सा चमके मां का स्वरूप।
चौथे रूप से उत्पन्न ब्रह्मांड का,
अतः कहलाई मां कूष्माण्डा।
साधक के मन में अनाहत चक्र,
मां तेरी उपासना सुगम , श्रेयष्कर।
पांचवे रूप धरी स्कन्द की माता,
मां कहलाई तुम स्कंदमाता।
विशुद्ध चक्र कमल पर आसन
देवी कहलाई तब पद्मासन।
छठा कात्यायन पुत्री कात्यायनी,
मां यह रूप अमोद्य फलदायिनी।
आज्ञा चक्र अत्यंत महत्वपूर्ण,
अलौकिक तेज युक्त तेरा रूप।
सातवां रूप मां कालरात्रि,
विघ्नविनाशक शुभ - फल दात्री।
सहस्त्रार चक्र खुले सिद्धियों के द्वार,
मां करती तब दुष्टों का विनाश।
महागौरी मां तेरा आंठवा रूप,
भक्तों के कलूष जाते हैं धूल।
सिद्धिदात्री मां की नौवीं शक्ति,
सारी मनोकामनाएं मां पूर्ण करतीं।
स्वाति सौरभ
स्वरचित एवं मौलिक