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खिड़कियां - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

खिड़कियां

  • 285
  • 3 Min Read

साहित्य अर्पण विद अक्स..
खिड़कियां
खोल दूं खिड़कियां ?क्या खुल सकेंगी खिड़कियां? हम डरते हैं बदलाव से, जो झांक सकता है इन खुली खिड़कियों से
यदि खुल गई खिड़कियां तो, क्या मुझे दरकार
होगी
तुम्हारी सहमति की, आज्ञा की ?
क्या है सत्य, क्या है असत्य ?
यदि
मैं स्वयं बन जाऊं सत्य, उदार उन्मुक्त, कर्तव्यनिष्ठ स्वयं संचालित, बेपरवाह कि कौन क्या सोचता है
मेरे बारे में
तुम्हारी कुंठाएं ना लगा सकेंगी ठेस मेरी भावनाओं को बस
देर है तो उस बदलाव को लाने की
जो
मेरे अंतस में है, उसने ही बंद की हैं यह खिड़कियां खोल दूं फिर क्या यह खिड़कियां?
अब खोल दूं खिड़कियां!!
गीता परिहार
अयोध्या

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Sarla Mehta

Sarla Mehta 3 years ago

वाह

Gita Parihar3 years ago

धन्यवाद

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

रचना अच्छी है परन्तु नई पंक्ति कहाँ शुरू होगी कहाँ खत्म हुई थोड़ा कंफ्यूज़न है चेक किजियेगा। और सही कर लीजियेगा। ???

Gita Parihar3 years ago

सुझाव के लिए हृदय से आभार

Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 3 years ago

बढ़िया

Gita Parihar3 years ago

धन्यवाद

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 3 years ago

No need to write sahitya arpan with aks. we will choose write ups on trending besis.

Gita Parihar3 years ago

Ok

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