कविताअतुकांत कविता
साहित्य अर्पण विद अक्स..
खिड़कियां
खोल दूं खिड़कियां ?क्या खुल सकेंगी खिड़कियां? हम डरते हैं बदलाव से, जो झांक सकता है इन खुली खिड़कियों से
यदि खुल गई खिड़कियां तो, क्या मुझे दरकार
होगी
तुम्हारी सहमति की, आज्ञा की ?
क्या है सत्य, क्या है असत्य ?
यदि
मैं स्वयं बन जाऊं सत्य, उदार उन्मुक्त, कर्तव्यनिष्ठ स्वयं संचालित, बेपरवाह कि कौन क्या सोचता है
मेरे बारे में
तुम्हारी कुंठाएं ना लगा सकेंगी ठेस मेरी भावनाओं को बस
देर है तो उस बदलाव को लाने की
जो
मेरे अंतस में है, उसने ही बंद की हैं यह खिड़कियां खोल दूं फिर क्या यह खिड़कियां?
अब खोल दूं खिड़कियां!!
गीता परिहार
अयोध्या
रचना अच्छी है परन्तु नई पंक्ति कहाँ शुरू होगी कहाँ खत्म हुई थोड़ा कंफ्यूज़न है चेक किजियेगा। और सही कर लीजियेगा। ???
सुझाव के लिए हृदय से आभार
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Ok