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मन की वे खेल खिलौने - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

मन की वे खेल खिलौने

  • 179
  • 9 Min Read

मन के वे खेल-खिलौने
जो जिंदा हैं यादों के
एक घने से साये में,
एक खूबसूरत सरमाये से
भरते मन के सब कोने
मन के वे खेल-खिलौने

लगते से बिल्कुल अपने,
हाँ, वे अपने, सिर्फ अपने,
वो अनगिन अनमोल सपने,
नन्हे-मुन्ने, मासूम, सलोने
मन के वे खैल-खिलौने

यादों की चादर में लिपटे से,
उन खुशनुमा से अहसासों के
दोनों में यूँ बूँद-बूँद बन सिमटे से

आँखों से सुकून सा
बन छलके से,
लमहा-लमहा,
तनहा-तनहा ढलके से

मोती बन पलकों पे
पल भर ठिठके से,

आशा की आभा बिखेरते,
भूली-बिसरी तस्वीरें
फिर से उकेरते,
कुछ उधर और कुछ इधर
और कुछ जाने किधर
जा छिटके-छिटके से,

आते-जाते लमहे में
चाहत में लिपटी राहत की
कुछ जगहें तलाशती,
तसव्वुरों की नर्म-नाजुक
उँगलियों से तराशती

यादें बन उमड़ी बदलियों
मनभावन सा
एक सावन ढूँढती
मन के बनते,
पावन से
उस वृंदावन में
गोपी बन आँखें मूँदती

मन की मोहन-माला के
मनकों की बनकर लडि़याँ
यादों की उस नदिया में
बूँद-बूँद बहती वे घडि़याँ

यादों के छोटे से
एक आशियाँ में
मोती बन बिखरे से,
मन के मुठ्ठी भर
एक आसमाँ में
जगमगाते से तारे बन
निखरे-निखरे से

खुशियों की
एक हरी-भरी,
एक भरी-भरी
धरती की गोदी में
बच्चे सा अहसास बनकर,
प्यार के संसार की
अनबुझी सी प्यास बनकर
बिखरे-बिखरे से,

विस्मृति के बेवफा,
बेरहम से हाथों में
कैद से हो,
तुडे़-मुडे़ से,
सिकुडे़-सिकुडे़ से,
धूप-छाँव में ढलकर आते
टुकड़े-टुकड़े वे

आ-आकर मुझको पुकारें,
मन के वो आवारा बंजारे,

यादों और वादों की
उन गहराती सी घाटियों से,
माटी की सौंधी खुशबू से,
पगलाती सी पाँतियों से,
बचपन के बिछुडे़,
अल्हड़ कुछ साथियों से
वो बेशकीमती नजारे

हाँ, बार-बार मुझको पुकारें,
बनकर जीवन-अमृत की
कालजयी, अद्भुत धारें
बहकाते से, चहकाते से,
महकाते मन के सब कोने

इस पचपन को बचपन बनाते,
मन के सतरंगी इंद्रधनुष से
सातों रंग चुराते
मदमाते, और इठलाते,
मंद-मंद फिर मुस्कुराते

मन के वे खैल-खिलौने,
नन्हे-मुन्ने, मासूम सलोने,
मन के वे खैल-खिलौने

द्वारा : सुधीर अधीर

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Mamta Gupta

Mamta Gupta 3 years ago

बहुत सुंदर रचना

Sudhir Kumar3 years ago

धन्यवाद

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