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चाक पर जिंदगी - Krishna Tawakya Singh (Sahitya Arpan)

कहानीप्रेरणादायक

चाक पर जिंदगी

  • 179
  • 33 Min Read

(लघु कथा )
चाक पर जिंदगी
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जावित्री अपने पिता मेवा चौधरी को चाक देखती जाती थी और सोचती जाती थी कि कहीं इन्हीं मिट्टी के बरतनों की तरह तो हमारी जिंदगी नहीं है | जब भी इन कच्ची मिट्टी के थान को चाक पर चढ़ाते देखती ,तो यही सोचती कि बने और पके बरतन भी पहले खेत में पड़े मिट्टी की तरह ही रहे होंगे | जिसे आकार प्रकार और आकृति उसके पिता की उँगलियाँ देती हैं | वे कितने लगन और और परिश्रम से इन उँगलियों की मदद से कितनी सुंदर सुंदर आकृतियाँ गढ़ लेते हैं | सतत ध्यान देना पड़ता है ,जरा सा भी ध्यान हटा कि आकृति बिगड़ जाती हैं ,उनके आकार प्रकार टेढ़े मेढ़े होने लगते हैं | वह बड़े अफसोस के साथ इन चीजों को देखती और सोचती अपनी जिंदगी के बारे में |
जावित्री एक संवेदनशील लड़की है | बचपन में ही माँ के गुजर जाने के कारण उसने अपने पिता के साथ ही जीवन बिताया है जो भी प्यार या फटकार मिला उसे पिता से ही मिला | यूँ कहें उसके जीवन में उसके पिता के सिवा दूसरा कोई न था | जो भी अच्छा बुरा था बस उसके लिए उसके पिता मेवा चौधरी ही थे |
जबतक मेवा चौधरी का वश चला उन्होंने जावित्री की पढ़ायी लिखाई का खर्च वहन करने में कोई कोर कसर न छोड़ी | और जबतक वह उनके साथ रही और गाँव के स्कूल में पढ़ी तबतक वह परीक्षा में अव्वल आती रही | उसने दसवीं की बोर्ड परीक्षा में राज्य में सौ सफल छात्रों के अन्दर ही अपना नाम दर्ज कराया |
इतने अच्छे अंक मिलने के कारण उसकी आशा और उम्मीद अपने आप से भी बढ़ने लगी थी | साथ साथ उसके परिवार के अन्य सदस्य तथा निकटसंबंधियों को भी उससे उम्मीद होने लगी थी कि जावित्री एक दिन जरूर बड़ा आदमी बनेगी और हम सबके भाग सँवर जाएँगे | पर उससे इर्ष्या करनेवालों की भी संख्या कम न थी | जो लड़के कम नम्बरों से पास हुए थे या फेल हो गए थे उनके अभिभावक उनकी तुलना जावित्री से कर उन्हें नीचा दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ते | जिसके कारण वे मन ही मन जावित्री के दुश्मन हुए जाते थे | पर इन चीजों पर जावित्री ने शायद ही ध्यान दिया हो | वह सदैव अपने भविष्य के बारे में सोचती | और ज्यादा कुछ भी नहीं | उससे तो कई बड़े लोग जिनमें उन बच्चों के माता पिता भी शामिल थे इर्ष्या करने लगे थे | पर उसके सामने ऐसा मुँह बनाते जैसे उसकी उपलब्धि से वे कितने खुश हैं | वैसे लोग अपने चेहरे पर उमड़ते भावों से पहचान में नहीं आते या कोई भाव उनके चेहरे पर दिख ही नहीं पाता | वे तबतक अपनी खुशी का इंतजार करते हैं जबतक शिखर पर चढ़नेवाला गिर न जाए या गिरा न दिया जाए |
जावित्री के पिता की आय इन्हीं मिट्टी के बरतनों की बिक्री पर आधारित था | मिट्टी बड़े लोगों के खेतों से आती थी जिसके पैसे उन्हें देने पड़ते थे | उन बरतनों में नक्काशी के लिए रंग ही नहीं खरीदने पड़ते थे उन्हें बल्कि उन्हें पकाने के लिए पुआल और लकड़ियाँ भी खरीदनी पड़ती थी | उसपर भी घरों में स्टेनलेश स्टील और प्लास्टिक के बरतन आ जाने के कारण उनकी बिक्री कम हो गयी थी | अब लोग पर्व त्योहारों के मौके पर ही मिट्टी के बरतन खरीदते थे | गर्मी के दिनों में सुराही या घड़ो की बिक्री हो जाती थी | चीनी मिट्टी के कप ने कुल्हड़ की बिक्री को खासा प्रभावित किया था | बड़े बड़े लोग अब गमले भी पीतल और ताँबे के रखने लगे थे | सरकारी उद्यानों में मिट्टी की जगह सिमेंट के गमले इस्तेमाल होने लगे थे | जिसने मिट्टी के बरतनों की बिक्री को खासा प्रभावित किया था | सब चीज का भाव बढ़ता था पर मिट्टी के बरतनों के भाव कई सालों से स्थिर ही नजर आते थे | बढ़ोत्तरी भी होती तो इतनी मामूली कि और वस्तुओं की बढ़ती कीमतों की तुलना में बहुत कम लगता | गाँव की आबादी भी कोई ज्यादा नहीं थी जिसके कारण बरतनो् एवं खिलौनों की बिक्री भी उतनी नहीं हो पाती थी | जिसके कारण इतनी मेहनत और लगन के वावजूद भी उनका गुजारा मुश्किल से होता था |
फिर भी किसी तरह मेवाराम चौधरी ने इधर उधर से कुछ पैसे उधार लेकर राज्य के सबसे अच्छे कॉलेज में उसका दाखिला करवा दिया | जावित्री के नम्बर तो अच्छे थे ही इसलिए उसे हॉस्टल का आबंटन करने में कॉलेज प्रशासन ने कोई अड़चन महसूस नहीं की | और बिना किसी आनाकानी के उसे हॉस्टल आबंटित कर दिया गया | शुरू शुरू में तो कुछ दिन सब ठीक लगा पर धीरे धीरे जावित्री का मन वहाँ नहीं लगने लगा | ज्यादातर बड़े घरों के लड़के और लड़कियाें से ही कॉलेज भरा था | यहाँ पढ़ना एक स्टेटस सिंबल जैसा था | इसलिए बड़े घर के लड़के और लड़कियाँ अपने पिता के पैसे और रसूख का इस्तेमाल कर यहाँ दाखिला करवा लेते थे | यहाँ के शिक्षकों का नाम इतना बड़ा था कि वे जो पढ़ाते वह समझ में न भी आए तो भी उनसे प्रश्न पूछने की हिम्मत करना शायद अनुशासनहीनता ही नहीं अपराध जैसा था | ज्यादातर लड़के खुद को समझदार न समझे जाने के डर से भी चुप रहते | कहीं कोई मेरा मजाक न उड़ाए | इसका डर होता उन्हें |
जावित्री चुपचाप कॉलेज जाती और अक्सर कक्षा में शांत ही रहती | कुछ सवाल मन में आते भी तो उसे मन में दबा लेती ,अपमान के भय से | धीरे धीरे उसके मन में सवालों का ढ़ेर बनता जा रहा था | या कह सकते हैं कि जावित्री सवालों के ढ़ेर में परिणत होती जा रही थी | उसने कई बार सवाल पूछने का परिणाम देखा था | शिक्षक पहले तो डांटते फिर उसके समझने की क्षमता पर ही प्रश्न चिह्न लगाकर उसे दबाने की कोशिश करते | उतने बड़े बड़े नाम ,वह यह तो नहीं कह सकती कि इन्हें ही समझ में नहीं आता ये समझाएंगे क्या ? क्योंकि लोगों के बीच उनकी साख थी और उन लोगों की लिखी किताबें देश के कई कॉलेज और यूनिवर्सिटी में भी पढाए जाते थे चाहे वे उनके द्वारा जोड़तोड़ और नकल करके ही क्यों न लिखी गयी हो |
इन्हीं दबाबों के बीच जावित्री की प्रतिभा अंदर ही अंदर कुंभलाती सी जाती थी | जिसे वह किसी से कह भी नहीं सकती थी | क्योंकि उस कॉलेज का इतना नाम था और उसके रिजल्ट इतने अच्छे आत,े न जाने कैसे ? कि जावित्री की बातों को शायद ही कोई समझने को तैयार होता | जिसका आभास जावित्री को हो चला था |
धीरे धीरे परीक्षा के दिन निकट आ गए | परीक्षा भी हुई | पर परिणाम जब आए तब जावित्री के अच्छे नम्बर नही् आए | वह परिणाम से और उदास रहने लगी | उसने जो अपने आपसे उम्मीद लगायी थी वह दम तोड़ती हुई नजर आने लगी थी | जावित्री का मन अब पढ़ने लिखने से हटने लगा था | वह विषय को समझना चाहती थी पर शायद उसे समझानेवाला कोई न था |
आज जावित्री ने किसी तरह से ग्रैजुएशन करने के बाद बेरोजगारी का सामना करने को विवश है | जो भी आता है उसे कुछ सुझाव दे जाता है या उसका मजाक उड़ाता है | जीवन यापन के लिए शायद कोई भी छोटी मोटी नौकरी की उसे अब तलाश रहने लगी थी | जहाँ से वह अपना जीवन फिर से अपनी समझ और आत्मविश्वास की बुनियाद पर शुरू कर सके | इन्हीं विषयों को सोचती और चाक चलाते अपने पिता को ध्यान से देखती | और मन ही मन कहती मिट्टी बेचारा कितना निर्दोष है और आज्ञाकारी हर रूप में ढ़ल जाने को तैयार है अपनी प्रकृति के अनुऱूप | हमारे पिता के अनुभव और ध्यान ही उनकी उँगलियों के माध्यम से उनका आकार और प्रकार तय करती है | ज्योंहि उनका ध्यान हटता है आकृति विकृत हो जाती है | फिर क्यों नहीं बच्चों के असफल होने पर शिक्षक को दोषी ठहराया जाता है | जबकि सब कहते हैं बच्चे कच्ची मिट्टी के होते हैं जैसे ढ़ालो ढ़ल जाएँगे | वह यही सोचती कि मिट्टी का दोष है ,चाक का दोष है या चाक चलानेवाले का दोष है | मिट्टी की प्रकृति को कुम्हार के अलावा और कौन पहचान सकता है | मिट्टी की प्रकृति देखकर वही तय कर सकता है कि इससे कौन सी आकृति बन सकती है |

कृष्ण तवक्या सिंह
30.09.2020.

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Sarla Mehta

Sarla Mehta 3 years ago

जी कहानी उत्कृष्ट है।लघुकथा के हिसाब से विस्तार अधिक हो गया।

Sudhir Kumar

Sudhir Kumar 3 years ago

चैतन्यपूर्ण

Sudhir Kumar

Sudhir Kumar 3 years ago

सामयिक रचना

Krishna Tawakya Singh3 years ago

धन्यवाद !

Poonam Bagadia

Poonam Bagadia 3 years ago

अच्छी रचना

Krishna Tawakya Singh3 years ago

धन्यवाद !

दादी की परी
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