कविताअतुकांत कविता
कविता- ब्रजमंडल में ग्रीष्म
उग्र तापक ग्रीष्म हाय, अग्नि बरसाए ब्रजमंडल पर,
श्याम सुंदर नित धेनु चराए, उष्णता का त्याग कर डर।
कुंज वाटिका घोर तप्त है, व्याकुल है संतापित समीर,
क्षोभित अभिघातिन वनाग्नि, देती है जीवथ को चीर।
स्निग्धा अंतर्ध्यान हो गई है, सखिमंडल हुआ अधीर,
कृष्ण संग क्रीडा की उत्कंठा, कैसे आएं जमुना के तीर।
तमाल निष्पत्र हो रहें हैं, दुराक्रांत निदाघ धरा पर,
कर दिए रिक्त सरोवर सारे, वानरों ने अवगाहन कर कर।
राधाकुंड पुकार रहा है, कैसे धरे तन मंजुल वेष,
मेघ को ढूंढे बृज-बालाएं, चित्त में साहस रहा ना शेष।
श्री राधा तो कोमलांगी हैं, मदन तृप्ति का बनो आधार,
वियोग से श्रीमुख निष्प्रभ है, मोहन तुम करो स्वप्न साकार।
ललिता निज भवन में बैठी है, उर में प्रेम का दीप जला कर,
श्याम निष्ठुर बना हुआ है, निर्मोही उसे हृदय से भुला कर।
थकन बलित से नीलाक्ष हैं, वक्ष पर कुछ कंचुकी खुली,
विशाखा याद कर रही,जब पिया संग हिंडोले झूली।
मदन कामना से आकुल हैं, रास-नृत्य आस आकंठ,
विरह वेदना में झुलस रही हैं, कान्हा आन लगाओ कंठ।
गिरिराज जैसी पीर है, सब सखियन का मन अकुलाय,
शुष्क पात सी झर रहीं हैं, हृदयस्थल का प्रसून मुरझाय।
मृदु तन धंधार सा दहक रहा है, करने आओ शीतलप्रद रास,
विकराल ग्रीष्म में कान्हा, क्यों दे रहे सबको बनवास।
वन-केलि को बौराईं सखियां, बैठीं नवदल सेज सजाई,
पिय से वियोग अनल समाना, श्री गोपाल तूने प्रीत भुलाई।
हृदय-अग्नि अति प्रचंड है, विस्तृत हो रही चहुं ओर,
प्रेम वृष्टि कर दो वृंदावन में, कहां हो तुम नवल किशोर।
● अनुजीत इकबाल
इतनी गहन सोच इतना मगन होकर लिखना सबकी बस की बात नही। मैं तुम्हारी प्रत्येक रचना पर नतमस्तक हो जाती हूँ। और जो मेरे प्रिय हैं उन पर तुमने इतना विस्तारपूर्वक लिखा कि मैं पढ़ते पढ़ते खो गईं एक एक शब्द एक एक पंक्ति बहुत गहन है। नमन तुम्हारी लेखनी को। ??
प्रिय नेहा जी, साधुवाद। लेकिन, मैं यह सोच रही हूं कि आप को रचना पसंद आने की वजह यह है कि आप स्वयं कृष्ण प्रेम से सराबोर हैं और कोई भक्त ही ऐसी रचनाओं का आनंद ले पाता है। ऐसे ही कृष्णमय रहिए