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धरती कहे पुकार के - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकप्रेरणादायक

धरती कहे पुकार के

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यह बात तब की है जब कोरोना ने हमारे पाँवों को जंजीरों में जकड़कर घर की चारदीवारी में कैद नहीं किया था. मैं स्वास्थ्य की दृष्टि से शाम को एक-डेढ़ घंटे घूमता था. अगर बाहर कोई काम होता तो पाँच-छः किलो मीटर चलने को भी स्वयं के लिए प्रकृति का एक संदेश समझकर पैदल ही निकल जाता था. अब फिर कब वह स्वर्णिम अवसर जीवन का द्वार खटखटायेगा, इसका उत्तर कोरोना से ही पूछना पडे़गा, " अतिथि, तुम कब जाओगे ".

हाँ, तो एक शाम ऐसे ही स्वास्थ्य के नाम समर्पित करने, बाहर का एक काम भी लगे हाथों, इस बहती गंगा में हाथ धोते हुए, निपटाकर, एक पंथ दो काज और आम के आम और गुठलियों के दाम भी उस शाम के सिंदूरी आँचल में बटोरने चहलकदमी सी करता हुआ घर से निकला. संयोग देखो, सड़क खोदकर कुछ काम करवाया जा रहा था. मैं राह बदलकर दूसरे मार्ग से निकला तो आगे वहाँ भी वही नजारा राह रोके खडा़ था. आप शायद विश्वास न करें संयोग ने मेरे साथ कुछ ऐसा प्रयोग कर दिया कि चार-पाँच बार मेरे सांध्य-भ्रमण की लक्ष्मणरेखा सा बन गया. खैर, मेरा घूमने का दैनिक दायित्व तो पूरा हो गया किंतु एक विचित्र सा प्रश्नचिह्न इस कवि-हृदय पर चोरी-चोरी चुपके-चुपके, दबे पाँव सा आया और ठिठककर चैतन्य की एक दस्तक देकर चला गया.

आते ही पत्नी के तानों को अनसुना सा करके लेखनी की शरण में सिमट गया. आप इसे बाल की खाल निकालना भी कह सकते हैं. आखिर सड़क पर खुदाई का उद्देश्य कोई विकास-कार्य ही होगा मगर इस सनकी बुद्धि का क्या करूँ जो इस खुदाई में धरती का आहत मन खोज रही थी. मुझे लगा कि धरती अपने बेटों को पुकारकर कह रही है, " कभी यह भी सोचा है कि विकास या फिर इतिहास की दुहाई देकर बार-बार मुझे खोदने से मुझे कितना कष्ट होता होगा. " .

आज के इस विकासोन्मुख परिदृश्य में यह चिंतन काफी पिछडा़ और दकियानूसी लगता है किंतु क्या यह आशंका निर्मूल है.? क्या हमारी बटोरने की प्रवृत्ति प्रकृति के सभी अंगों पर कुठाराघात नहीं कर रही? भूख लगने पर हम माँ के पास जाते हैं और माँ हमें हमारी आयु और अवस्था के अनुसार अन्नपूर्णा बनकर हमारी भूख मिटाती है मगर हम तो दूध के साथ-साथ खून भी पीने लगे. धरती का हरा-भरा आँचल काट-छाँटकर उसका चीरहरण करने के लिए दुःशासन बन गये. हवा को धुआँ-धुआँ करके उसका ओजोन नामक सुरक्षाकवच खंडित स्वयं को महिमा-मंडित सा करके माँ को एक बार सूर्य के हाथों अग्निपरीक्षा के लिए अकेला छोड़ दिया. कभी विकास की अंधाधुंध दौड़ और इतिहास की भूलों को सुधारने के नाम पर उत्खनन और कभी नदियों की गोदी को अबोध बच्चे की भाँति गंदा करके हम माँ के दूध का ऋण कुछ इस तरह उतार रहे हैं कि नरकासुर भी शर्मा जाये. धरती की कोख को बारूदी सुरंगों से छिन्न भिन्न करके क्या हम मानव जाति के विनाश की विभीषिका को आमंत्रण नहीं दे रहे.

ना जाने क्यों, मुझे बार-बार धरती माँ का उदास आहत चेहरा कुछ कहता सा लगता है,

धरती कहे पुकार के,
आँसुओं में अपनी सारी
पीडा़ को उतार के,
चेहरे की बूढी़ झुर्रियों में
संवेदना उभार के,
" मेरे बच्चों, मैं तो माँ हूँ
प्यार का एक हरा-भरा सा जहाँ हूँ
मुझको माँ ही रहने दो
लिप्सा की इस आँधी में
खुद को मत यूँ बहने दो
मेरा आँचल मत लाल करो
बस हरा-भरा ही रहने दो
मत करो चीरहरण मेरा
एक और दुःशासन बनकर
मुझको यूँ काट-छाँटकर,
यूँ टुकड़ों में हर रोज बाँटकर,
मेरा मातृत्व बाकी रहने दो
मुझको माँ ही रहने दो "
अपना कटा-फटा,
सिकुडा़-सिकुडा़
चिथडा़-चिथडा़ सा आँचल
बारंबार पसार के
जग-जननी कहे पुकार के,
ये धरती कहे पुकार के

धरती की इस पुकार पर हम कब जागेंगे, इस प्रश्न के उत्तर में ही
हम सबका भविष्य निहित है.

द्वारा : सुधीर अधीर

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नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 4 years ago

बहुत सुंदर रचना

दादी की परी
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