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"ज्यादा"
कविता
इन प्रश्नों की शरशय्या पर
पेड़ से बात.....
मैं खुद में तुमसे ज्यादा नहीं था कभी
ग़रीब के घर सपने नहीं होते
हारने को कुछ बचा ही नहीं
मुकम्मल कर सफ़र बशर हम आते हैं
*फ़िक्र-ए-अना-ए-वालिद*
खुशियों से ज्यादा ग़म निकले
किस जन्म की रक़ाबत का बदला लिया
तिश्नगी बढ जाती है
तुमसे ज्यादा नहीं है खास कोई
ख़ामोश रहकर
दवा से ज्यादा असर दुवा से हुआ
ज़रूरतें कम सब्र रखें ज्यादा
गैरों से ज्यादा अपनों के ग़म मिले
सब से ज्यादा कीमती
उम्मीद और अपेक्षा
जितनी सफाई देगा ज्यादा यहाँ
और क्या बताएं
ज्यादातर बेबात सोचते हैं
मैं कुछभी नहीं जानता
बर्बाद ज्यादा हुआ बचा कम है
तुम्हेभी कोई ग़म नही हमें भी कोई ग़म नहीं
सितम लोगों ने कलसे ज्यादा आज किया
मोहक उनका दीदार ज्यादा हुआ
तेरे बग़ैर जीकर मैंने क्या मरना है
ज्यादा से भी सब्र नहीं
अपने हासिल को ही खोता गया
जूता ज्यादा साफ़ है
लबोंको बंद ज्यादा रखो कम खोलो
मुस्कुराना औरभी ज्यादा मुश्क़िल है
सबब बेकली और बेचैनी का
अक्ल अपने पास ज्यादा समझते हैं
'अक़्ल अपने पास ज्यादा समझते हैं
ठोकरें खाता है उतनी ही ज्यादा अक्ल आती है
सुनने वाले को सब्र- ओ- क़रार आ जाए
हसरतें कहीं जाती नहीं हैं
ज्यादा देर तक टिका नहीं सुरूर किसीका बशर
मरने से ज्यादा ज़िंदगी सताती है
कहानी
लालसा 💐💐
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