कवितादोहा
ठीक ठीक ही बोलिये, बोलिये ना अशुद्ध,
हिंदी के अस्तित्व पर, चलो छेड़ें युद्ध।
ऊपर को बिंदी एकल, ह-द के मध्य लगाए,
मात्रा भी ई स्वर की, इधर उधर इठलाए।
हिस्सा है संस्कृत का, यह पाठ ना भूलिए,
मिलाकर शब्द अशुद्ध, गरिमा नहीं तोड़िए।
व्यापक है रूप इसका, लेखन की है जान,
पहला अक्षर अ है जरुर, अंतिम ज्ञ से ज्ञान।
चंद्रबिंदु प्रियतम सा, ध्वनि का सागर है
ऊ के ऊपर लगे तभी, भविष्य उजागर है
मीठी बोली या खड़ी, सब जीव्हा पर रटे,
फिर भी ढूंढ रहे कखग, किताब में लिपटे।
क्या जाने जन कह रहे, समझ कभी ना आए,
सुनें कई बार बहुत पर, मुंह ताक रह जाए।
विविधता है कई यहां, समझोगे क्या सही,
बोली भाषा जन-जन की, हरगांव बदल रही।
जरा जरा बात पर दिए, अंग्रेजी के तान,
अरे! हिंदी में क्या नहीं, तू ही बता महान।
सदाचार का पाठ यह, ईश्वर का सत्य भी,
बच्चों सा ललकपन है, वृद्ध का ह्रदय भी।
मातृभाषा है हिंद की, अखंड इसका रूप,
भूपद सी सोहार्द भी, एकता का स्तूप।
चाहें जग का अंत हो, इसका नहीं है पर,
प्रभु की वाणी भी यही, यही है रत्नागर।
शिवम राव मणि