कविताअतुकांत कविता
मैं और वह
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न वाद में , न विवाद में
मैं जीता आया हूँ अनहद नाद में |
विचारों की पूँछ न जाने कब की छूट गयी
जब डूबे थे इस भँवर में ,कोई सहारा न था |
दूर दूर तक देखा कोई किनारा न था
बस मैं था और थी बच निकलने की प्रार्थना
उस असीम से ,जो शायद व्याप्त है सर्वत्र
पर नजर नहीं आता कहीं इन आँखों को
जब कोई सुननेवाला नहीं रहता
तो हम उसे ही सुनाते हैं
बिना उसे देखे ,बिना उसे जाने
शायद यह मेरा भरोसा है उसपर
हो सकता है झूठ हो
यह मैं नहीं जानता ,
हो सकता है यह डर हो मेरा
पर बार बार टूटकर ,वह जुट जाता है
कितना भी तोड़ता हूँ विचारों की तलवार से
वादों की कटार से ,
पर फिर भी जुट जाता है
और भी घनीभूत होकर जम जाता है |
कभी आँखों में नमी बनकर
कभी हृदय की जमीं बनकर
उस पर फूल और काँटे की बगिया सजाता है |
शायद अदृश्य रहकर भी
वही साथ निभाता है,आज भी कल भी
उसे याद कर आँसूँ निकल आते हैं
शायद इन आँसुओं में वह निकल आता है |
हो न हो मैं नहीं जानता
पर अपने होने का अहसास दिलाता है |
न जाने क्यों सताती है दुनिया उसे
जो उसके सानिध्य में आता है |
वो तो भाव बनकर हर हृदय में लहराता है |
कृष्ण तवक्या सिंह
11.09.2020.