कवितानज़्म
बदल गए मौसम के मिज़ाज
बदल गए हैं कल और आज
लहजा बदल गए हैं "बशर"
लोगबाग बदल गएहैं आवाज़
सरगम के सुर बदल गए हैं
पुराने पड़ गए हैं सब साज
खुदमें मश्ग़ूल हो गया आदमी
बिनकोई काम बिनकोई काज
इन्सान को इन्सान होने पर
हुआ करता था कभी नाज
नहीं रह गया है वोह आदमी
वक़्त की गिरी है ऐसी गाज
© dr. n. r. kaswan "bashar"