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मेरे शहर की बस - Yogendra Mani (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

मेरे शहर की बस

  • 109
  • 12 Min Read

मेरे शहर की बस
मस्तानी चाल से सड़कों पर रेंगती
मेरे शहर की बस
बस क्योंकि बस है
जो कभी भी रुक सकती चल सकती है
दल बदलू नेता की तरह चलते चलते रास्ता तक बदल सकाती है
इसकी इस आदत से प्रत्येक यात्री विवश
मेरे शहर की बस ..।।
तीन की सीट पर चिपके हैं छः छः
सीट भी अपाहिज कुछ अपनी टांगो से
कुछ टूटी कमर से लाचार
जो यात्री खड़े हैं उन्हें देख के हर कोई कह सकता है
कि इन्हें दरवाज़े से नहीं
छत खोलके ऊपर से जमाया गया है
यात्री शुद्ध हवा का सेवन कर सकें
इसलिए
खिड़कियों से शीशे हटाया गया है।
दरवाज़ा तक लगाने का कष्ट
किसीको नहीं उठाना पड़ता
क्योंकि दरवाज़ा है ही नहीं।
खिड़कियों और दरवाज़े से लेकर छत तक सवारियाँ लदी हैं
सभी को अपनी गठरी, बक्से थैले आदि
छूटपुट सामान सर पर रखकर यात्रा करने की सुविधा प्राप्त है
बस के चलने से पहले
कंडक्टर ने दो चार यात्रियों को
ज़बरजस्ती घुसाने के लिए
बस का निरीक्षण कुछ एसे किया
जैसे कर्तव्य निष्ठ अध्यापक
अपने प्रिय छात्र की उत्तर पुस्तिका में दिखता है
कि
अंक बढ़ाने का स्थान कहाँ शेष है
और सम्भावना न होते हुए भी टाँग दिया जाता है
अंको का बोझ
बेचारी उत्तर पुस्तिका पर
यह कंडेक्टर भी
जन सुविधा के लिए
टाँग देता है कुछ और सवारियाँ
ठीक इस तरह
जैसे जनरल स्टोर पर
कुछ आकर्षक नमूने दुकान के बाहर लटकाते हैं
और जिस प्रकार
दुकानदार इन नमूनों का उपयोग
दुकानदारी चलाने के लिए करता है
यह कंडेक्टर इन सवारियों का उपयोग
बस के बार बार रुकने पर
धक्का लगाकर
बस चलवाने के लिए करेगा।
चलते समय बस के इंजन की आवाज़
जैसे ग़ुलाम अली की ग़ज़ल के साथ
भप्पी लहारी का डिस्को संगीत ।
बस के चारों ओर
कुछ उखडी धंसी कीलों का व्यवहार
यात्रियों के साथ कुछ इस तरह का है
जैसे ख़ूबसूरत युवती के साथ
जवान मनचलों की छेड़छाड़।
यात्रा की समाप्ति पर
प्रत्येक यात्री का होता है पुनर्जन्म।
शहर में एक अजनबी ने एसा सुंदर दृश्य
शायद पहली बार देखा
उसने हमें रोका और बोला भाईसहब
इन यात्रियों को
बस से बाहर अब कैसे निकाला जाएगा
इससे पहले की हम कुछ कह पाते
वह बोला हम समझ गए
इस बस की छत पर ज़रूर कोई ढक्कन लगा है
जहाँ से रास्ते की सवारियों को निकाला
और लटकाया जायेगा
अंतिम स्टेशन पर बस की छत को उखड़ेंगे
फिर उलटा कर हिलाएँगे
जिससे सभी यात्री ज़मीन पर पसर जाएँगे
उनके इस ज्ञान के बाद
मेरा वक्तव्य इस तरह बेकार था
जैसे गृह मंत्रानी के सामने हमारा विवेक पूर्ण वक्तव्य
हम उन्हें कैसे समझते
की यह कोई मंदिर की दान पेटी नहीं
जिसमें जब चाहा रुपया डलवा दिया
जब चाहा उलटा कर हिला दिया
जब आपकी बारी आएगी
सारी समझाती धारी रह जाएगी
चढ़ने और उतरने की कला आपने आप आ जाएगी ।

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नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 1 year ago

बहुत खूब आदरणीय

Yogendra Mani1 year ago

सादर आभार 🙏

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