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धर्म के प्रति उदासीनता - Gita Parihar (Sahitya Arpan)

कविताअन्य

धर्म के प्रति उदासीनता

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  • 16 Min Read

#साहित्य अर्पण मंच
#पुस्तक वाला आयोजन- २
#दिनांक:०१/०६/२०२३
#विषय:मुक्त(धर्म के प्रति उदासीनता)
#विधा: मुक्त(परिचर्चा)

स्थान:राधे कृष्णा संस्थान सामूहिक भवन
सदस्य:श्री श्रवन मित्र,संस्थान प्रमुख ,सीयाराम स्मारक अध्यक्ष श्री
गोविन्द वल्लभ पंत, स्थानीय संस्कृत महाविद्यालय विभागाध्यक्ष श्रीमती मीनाक्षी दीक्षित और मैं गीता परिहार , सेवानिवृत्त प्रधानाचार्या,का.सु.सीनियर से.स्कूल और इस कार्यक्रम की संचालिका।

मैं: नमस्कार गणमान्य अतिथि मित्रो,आज की इस पावन बेला में मैं आप सभी का हार्दिक स्वागत और अभिनंदन करती हूं।आज हम यहां एक गंभीर विषय पर चिंतन,मनन और परिचर्चा के लिए एकत्रित हुए हैं, विषय अत्यंत सरल होने के साथ-साथ जटिल भी है।'धर्म के प्रति उदासीनता 'और मुझे पूर्ण विश्वास है कि शायद ही हम इस बात से सहमत होंगे क्योंकि धर्म जीवन जीने की एक विशुद्ध प्रक्रिया है,हम हमेशा धर्म-परायण रहे हैं,भला इससे उदासीन कैसे हुआ जा सकता है?आइए प्रारंभ करें परिचर्चा और आप सबके विचारों से रुबरु हों।सबसे पहले मैं श्रीमती मीनाक्षी जी को आमंत्रित करती हूं, कृपया अपने विचारों से कार्यक्रम का शुभारंभ करें।

मीनाक्षी:सबसे पहले तो मुझे आमंत्रित करने के लिए आपका धन्यवाद। आपका विषय समसामयिक है।धर्म पालन से तो सुख और आत्मिक शांति का अनुभव होता है।यह प्रभु की ओर बढ़ने का भाव है।धर्म से कभी उदासीन नहीं हुआ जा सकता।हां,यह बात सत्य है कि आज धर्म को दिखावे के रूप में प्रदर्शित किया जाने लगा है ,भली- भांति समझते -बूझते हुए कि धर्म का दिखावा करने वाले की समस्त धार्मिक प्रवृति का स्वत: ही लोप हो जाता है।

गोविन्द वल्लभ:मनुष्य को धर्म -कर्म और मानव सेवा से भगवान की प्राप्ति होती है और संकट दूर होते हैं।धर्म से उदासीन नहीं हुआ जा सकता ,धर्म तो आत्मा को पवित्र बनाने का साधन है। हां,किसी भी लालसा को लेकर किया गया कार्य लोभ है,धर्म नहीं।

श्रवन मित्र: मैं आपकी बात से पूर्णतया सहमत हूं। हम देखते हैं कि धर्म स्थानों मे लोगों की संख्या तो बढ़ रही है परंतु उनकी आस्था धीरे- धीरे कम होती जा रही है,इसे हम धर्म के प्रति उदासीनता कह सकते हैं। धर्म तो हमें समाज से,अपने परिवेश से, अपनी पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं से जोड़ता है।

मीनाक्षी : यहां हमें धर्म और आस्था को समझना होगा।धर्म और आस्था;इनमें एक की अधिकता दूसरे को हानि पहुंचाती है,क्योंकि साक्षर तथा शिक्षित लोग भी आस्था के नाम पर ऐसे- ऐसे धार्मिक कृत्य करते हैं, जो तर्कहीन होते हैं, खुद अपने लिए और समाज के लिए हानिकारक एवं कष्टदाई होते हैं और इन्हीं के कारण धर्म के प्रति उदासीनता जन्म लेती है।

गोविन्द वल्लभ:नैतिकता धर्म की बुनियाद है।धार्मिक होने के लिए नैतिक होना पहली शर्त है।जो लोग दिखावे के लिये अहंकार वश धर्म का ढोंग करते हैं मसलन भंडारे ,जिनमें धर्म भावना ढूंढना कठिन है ,अहंकार की गंध ज्यादा आती है,कीर्तन मंडलियों का आयोजन सरीखे कार्यक्रमों के आयोजन द्वारा उत्पन्न शोर ध्वनि प्रदूषण ओर वायु प्रदूषण को बढ़ाकर उलझन पैदा करता है।

मैं: आप सबके अनमोल विचारों का बहुत-बहुत धन्यवाद करती हूं और अंत में यह कहना चाहूंगी कि हमारा हर कार्य, हमारे हर आचरण में मानवता लक्ष्य हो,सबका कल्याण का ध्येय हो,सबका अभ्युदय हो, पर्यावरणीय परिवेश का संरक्षण हो, वही सच्चा धर्म है। धर्म के प्रति उदासीनता हमें पतन की ओर ही ले जाएगी। आत्मा का उत्थान और समाज की भलाई धर्म पालन में ही है।धर्म आत्मा को पवित्र करने का साधन है।

आप सभी का अपने सुविचारओं से आज की इस शाम को सार्थक बनाने के लिए हार्दिक आभार।

गीता परिहार
अयोध्या कैन्ट

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नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 11 months ago

बहुत बढ़िया रचना गीता जी

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