कवितागजल
बेगाने से शहर में मिला था वो अजनबी
शायद मेरी दुआ का सिला था वो अजनबी
बिखरे हैं मेरी राह में कांटे इधर उधर
कांटों के बीच गुल सा खिला था वो अजनबी
गिरने लगीं यकीन की दीवार खोखली
चट्टान सा ज़रा न हिला था वो अजनबी
मुस्कान था किसी की किसी की हंसी भी था
हद ये भी कुछ दिलों का गिला था वो अजनबी
जख्मों का सिलसिला हो गई उसकी रहबरी
हर बार मुझ से पहले छिला था वो अजनबी