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अकेलापन - Kamlesh Vajpeyi (Sahitya Arpan)

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अकेलापन

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'' अकेलापन ''


यह .. शब्द मात्र ही एक विशेष प्रकार का भाव व्यक्त करता है. एक
बेचारगी..का सा भाव ..

कहते हैं, मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है. वह बहुत समय तक अकेला नहीं रह सकता.. उसे किसी के साथ की तीव्र आवश्यकता महसूस होती है..


बहुत से लोगों को परिस्थिति- वश. अकेलापन झेलना पड़ता है.. लम्बे समय तक अकेलेपन में रहना कठिन और त्रासद हो जाता है... मानसिक विक्रतियां होने लगती हैं..

यह अवश्य है कि कभी-कभी व्यक्ति. एकान्त का लाभ उठाकर अपने बचे हुए.बहुत से . अधूरे कार्य पूरे कर लेता है.
उसके कार्य में कोई अड़चन पैदा करने वाला नहीं होता..
प्रायः लेखक और साधक, एकांत में, बिना किसी विघ्न के अपना कार्य पूरा करने का प्रयास करते हैं.

लेकिन बहुत लम्बे समय तक एकांत में रहना.. धीरे-धीरे कठिन और दुष्कर हो जाता है..


थोड़े-बहुत समय तो,अन्य साधनों से, समर्थ व्यक्ति.. अपने साधनों का उपयोग कर.. बिना किसी परेशानी के रह जाता है.. वह अपनी रूचि के कामों में अपना समय लगा देता है.

लेकिन धीरे-धीरे एकरसता, उस पर हावी होने लगती है..

विशेष रूप से अधिक आयु के लोगों में, अकेला पन एक बड़ी समस्या बन जाता है.. उनकी यदि कोई देखभाल करने वाला न हो, तब विशेष रूप से..

उनका बाहर का आना-जाना सीमित हो जाता है..

युवा वर्ग अक्सर उनका साथ. पसन्द नहीं करता..
कभी-कभी वे इसी से, और आयु जन्य कारणों से चिड़चिड़े भी हो जाते हैं..

आजकल.. अक्सर जब लोगों के बच्चे, अपनी नौकरी या अन्य कारणों से दूसरे शहर, या विदेश में बस जाते हैं. तब ऐसे माता-पिताओं को, विशेष पीड़ा होती है.. वे, अकेले और असहाय से हो जाते हैं.


ऐसा नहीं है कि अकेलापन केवल व्रद्ध व्यक्तियों की समस्या है..

बड़े-बड़े महानगरों में काम करने वाले, युवा लड़के लड़कियां.. जो बड़े-बड़े माल्स या कंपनियों में नौकरी करते हैं.. वे भी प्रायः अकेलेपन के शिकार हो जाते हैं.
विशेष रूप से जो दूसरे, छोटे शहरों से आते हैं.. और स्वभाव से अन्तर्मुखी और संकोची प्रव्रर्ति के होते हैं.

उनकी पूरी दिनचर्या यन्त्रवत हो जाती है.. दिनभर तो क्रत्रिम रोशनी की चकाचौंध, पाश्चात्य संगीत के वातावरण में निकल जाता है, संघी - साथी भी होते हैं.

किन्तु देर शाम को घर लौट कर अपने छोटे से कमरे का अकेलापन घेर लेता है.

महानगरों की '' फ्लैट संस्कृति '' जिसमें किसी को किसी से मतलब नहीं रहता, आपस में वार्तालाप न करने का,एक अलिखित नियम सा होता है..

वे अपने आप को, स्वजनों की दूरी के कारण बहुत अकेला महसूस करते हैं.. और अक्सर अवसाद के शिकार हो जाते हैं..

हालांकि आजकल सोशल मीडिया के चलते,सही तरह से उपयोग करने से, अकेले पन को कुछ हद तक दूर किया जा सकता है.. लेकिन इसमें बहुत सावधानी अपेक्षित है.
बहुत सी सहायक और विश्वसनीय वेबसाइट भी उपलब्ध हैं, जिनसे, समय पड़ने पर सहायता प्राप्त की जा सकती है.
बहुत से उपयोगी समूह भी सोशल मीडिया पर उपलब्ध हैं.. बहुत सी मनोवैज्ञानिक सहायता भी उपलब्ध है.




कमलेश वाजपेयी

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