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वार्ड नम्बर -17 - सुप्रिया सिंह (Sahitya Arpan)

कहानीसस्पेंस और थ्रिलर

वार्ड नम्बर -17

  • 358
  • 19 Min Read

वार्ड नम्बर -17 भाग -1

ट्रैन के इस ए .सी .कंपार्टमेंट में बैठे हुए भी मैं पसीने से सराबोर हो रही थी । उसकी आँखे पता नहीं क्यों मेरा पीछा छोड़ने के लिए तैयार ही नहीं थी । अपने अतीत की झलक उन में देखकर मैं खुद को उसमें देखने लगी थी ।कुल जमा सोलह से ज्यादा की उम्र नहीं होगी उसकी । बेतरतीब बिखरे हुए बाल ,शून्य में ताकती हुई वो आँखे जिनमें उसके गुम हो जाने की सारी कहानी बयां हो रही थी । बार -बार अपने हाथ को छुटाने की कोशिश में वो और गिरफ्त में कस जाती । उसको अपने साथ में लाने वाले और कोई नहीं उसके अपने परिवार वाले हैं जो शायद इस उम्मीद में उसे लेकर जा रहे हैं कि उस पर किसी आत्मा का साया है । साया तो साफ दिखाई दे रहा था पर शायद का साये को मैं ही देख सकती थी । क्योंकि मैं खुद भी ऐसे ही अनजान सायों से घिरी हुई हुँ जो मुझे मैं नहीं रहने देते ।

कहने को पेशे से डॉक्टर हूँ मैं ,मानसिक रोगों का इलाज करती हूँ ।लोगो की जिंदगी में झांकना और उनके अतीत की परतों को उधेड़कर उसपर मलहम लगाने का काम है । इसी में दिन बीत जाता है पर रातों का क्या?वो साये आज भी मेरे सिरहाने खड़े हो जाते हैं जो ....…।भाग रही हूँ खुद से ,उन सायों से । शायद अंत तक भगना ही मेरे भाग्य की नियति है । मेरी मदद कोई नहीं कर सकता क्योंकि अपना मर्ज और उसकी दवा दोनों ही जानती हूँ ।

मैडम जी कोल्ड ड्रिंक लेंगी ? हाँ ......ह्म्म्म लाओ देदो !मैं सोते से जागी । कोल्डड्रिंक बेचने वाले की उम्र मुश्किल से बारह साल की होगी । जिज्ञासा बस मैं खुद को पूंछने से रोक नहीं पाई ,"पढ़ाई नहीं करते "?

जबाब में गर्व से उठी हुई गर्दन हिला कर बोला ,"मैं घर चलाता हूँ'छोटी बहन और भाई पढ़ते हैं सरकारी स्कूल में"।

"तुम्हारा मन नहीं करता"

"मन का क्या है दीदी "वो तो बहुत कुछ करने को करता है पर ???"अपना सिर झटका कर वो आवाज लगाता हुआ आगे बढ़ गया ।

ये बच्चा भी कितने अंजान सायों का बोझ उठा रहा है । उसके पैरों में एक जंजीर सी पड़ी हुई दिखाई दी जिसका एक सिरा उसके पैरों से बंधा था और दूसरे सिरे से उसके परिवार की आशाओं से । क्या मैं खुद एक मनोरोगी होती जा रही थी ?

शाम के चार बजने वाले थे ,मेरा गन्तव्य ग्वालियर आने में अभी थोड़ा समय बाकी था । एक मनोरोग विशेषज्ञ के पद पर वहाँ के हॉस्पिटल में नियुक्ति का कल मेरा पहला दिन था । रहना -खाना और एक अच्छी सी तनख्वाह ।जिंदगी से और क्या चाहिए था अब मुझे .....?

समय काटने के लिए मैगजीन लेकर बैठ गयी । आस- पास के लोगों का आपस का वार्तालाप भी थोड़ा -बहुत कानों में सुनाई दे जाता था । कितनी विचित्र सी बात है....एक ही डिब्बे में संसार के सारे रंग दिख रहे थे ।बगल की सीट पर एक लड़काअपनी नई व्याहता के साथ जिंदगी की शुरुआत के सपने बुनने में इतना मगन था कि बाकी सभी की सुध नहीं थी । दूसरी तरफ एक बुजुर्ग जोड़ा तीर्थ यात्रा के लिए जा रहा था पर मन अभी भी घर में बेटे और बहू की तरफ लगा हुआ था ....। सामने की बर्थ पर एक लड़की अपने घर से शायद भागी हुई थी ,बार -बार उसका साथी उसको हौसला बढ़ाने की कोशिश में लगा हुआ था ।इन सब से अलग एक अल्हड़ बचपन पूरे कूपे को अपना खेल का मैदान बनाये हुए था ।

इन सब से अलग वो लड़की खुद से अभी भी बड़बड़ाने में लगी हुई थी । मेरा इस प्रकार उसको चोर नजरों से देखना उन लोगों को शायद अच्छा नहीं लग रहा था । उसके साथ के पुरुष ने अपनी सीट का पर्दा खींच लिया । मैं खड़की के बाहर झांकने लगी । ट्रैन की रफ्तार धीमी हो रही थी जो इस बात का सूचक थी कि मैं अपने मुकाम पर पहुँच चुकी थी । अपने बालों को कानों के पीछे बांधकर अपना पर्स संभालती हुई मैं भी ट्रॉली बैग को धकियाते हुए दरवाजे की तरफ बढ़ने लगी । वो लड़की और उसका परिवार भी मेरे पीछे हीआकर खड़ा हो गया था । एक अंतिम बार उसकी तरफ देखकर मैं नीचे उतरकर कुली ढूंढने लगी ।

आधे घंटे के बाद मैं हॉस्पिटल के गेट पर थी । थोड़ी देर की औपचारिकता के बाद हॉस्पिटल फैक्लटी के लिए बने एक फ्लैट की चाभी मेरे पास थी । दिन भर की थकान को चाय की चुस्कियों से दूर करने की कोशिश करते हुए मैं अपने इस नए घर का मुआयना करने लगी ।अब अगले चार सालों के लिए मेरा घर था । अच्छा -खासा दो कमरों और किचन वाला घर था जो मेरे जैसे इंसान के लिए बहुत था । परिवार के नाम पर मेरे पास था ही कौन ? जो था उसके पास जीते जी जाने का कोई मन नहीं था ।

क्रमशः

कॉपीराइट -सुप्रिया सिंह ।

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Gita Parihar

Gita Parihar 4 years ago

बहुत रोचक कथानक है, पढ़ चुकी हूं,दोबारा भी उतनी ही कशिश है।

Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 4 years ago

अहा! वार्ड नंबर 17

नये नये बाबाजी
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दादी की परी
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