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सोचो न! - डॉ स्वाति जैन (Sahitya Arpan)

कवितालयबद्ध कविता

सोचो न!

  • 156
  • 2 Min Read

दिन बहुत तेजी से छोटे हो रहे हैं,

हां, वाकई बहुत तेजी से !

देखो न, अब हम सर उठाकर, डूबते सूरज की तरलता,

आंखों से कहां पी पाते हैं?!

सोचो न! इस भागमभाग में, आपसी खींचतान से फटे,

रिश्तों के पर्दे कहां सी पाते हैं?!

मानो न! बोनसाई होने की सजा, समय की कतर व्योंत से,

हम ख़ुद भी पाते हैं!

फिर कहो न! क्या वाकई हम अपनी छोटी सी ज़िंदगी,

पूरी जी पाते हैं?????!!!!!!

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Kumar Sandeep

Kumar Sandeep 4 years ago

सुंदर रचना विषय आधारित

डॉ स्वाति जैन4 years ago

धन्यवाद

प्रपोजल
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