कवितालयबद्ध कविता
दिन बहुत तेजी से छोटे हो रहे हैं,
हां, वाकई बहुत तेजी से !
देखो न, अब हम सर उठाकर, डूबते सूरज की तरलता,
आंखों से कहां पी पाते हैं?!
सोचो न! इस भागमभाग में, आपसी खींचतान से फटे,
रिश्तों के पर्दे कहां सी पाते हैं?!
मानो न! बोनसाई होने की सजा, समय की कतर व्योंत से,
हम ख़ुद भी पाते हैं!
फिर कहो न! क्या वाकई हम अपनी छोटी सी ज़िंदगी,
पूरी जी पाते हैं?????!!!!!!