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मेरी जिद - Manu Manish Rajpoot (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिकसंस्मरण

मेरी जिद

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मेरी जिद

यह उस समय की बात है जब मैं बैचलर की डिग्री, मतलब बी एस सी की डिग्री कर चुका था। मैने उसके आगे का करने के लिए कुछ सोचा ही नहीं था। जिसके लिए सोचा था उस चीज़ के लिए मै आर्थिक रूप से काबिल भी नहीं था। वो इसलिए क्योंकि मेरा परिवार एक मध्यम वर्गीय और सयुक्त परिवार है। सयुक्त परिवार के कारण ही घर के सभी सदस्यों पर बराबर ध्यान देना थोड़ा मुस्किल काम था। साथ ही साथ कुछ साल पहले ही हमारे घर के दो सदस्य हमेशा के लिए हमें अलविदा कहकर इस दुनियां से चले गए थे। जिन दो लोगों की मैं बात कर रहा हूं, उनमें एक मेरे दादा जी और दूसरी मेरी बड़ी मां जिसको हम ताई भी कह सकते हैं। ये दोनों सदस्य हमारे सबसे ज्यादा लगाव वाले व्यक्ति थे। खैर जो होना था वो तो हो चुका है। अब मै अपना आर्थिक पक्ष मजबूत करने के लिए दिल्ली आ गया था। नवम्बर का महीना था। काफी ठंड भी हुई थीं उस वर्ष में और मेरा नया साल भी दिल्ली में ही हुआ था।
मैने दिल्ली में लगभग फरवरी तक काम किया। उस समय मैं अपने घर का काफी शौकीन किस्म का व्यक्ति था। कुछ पैसों को बचाकर मैने अपने दोस्त से कहा कि मुझे एक मोबाइल लेना है। मेरा दोस्त मेरी हमेशा सहायता करता था। इसलिए वह मान गया और अगले दिन वह मुझे एक मोबाइल खरीदवाकर ले आया। अब हम लोग घर जाने की तैयारी में थे। मैं इसके पहले कभी भी घर से बाहर नहीं निकला था। होली का महीना भी चल रहा था और मुझे अपने गांव के दोस्तों के साथ मस्ती भी करनी थी।
अब मै घर आ चुका था। मेरे पास अब कुछ पैसे भी थे जिससे मैं कुछ थोड़ा बहुत शुरू भी कर सकता था। मैं अपने नजदीक के ही एक कस्बे में गया। वहां मुझे विचार आया कि क्यों न मैं कोई कोचिंग लगा लूं। पास के ही एक कंप्यूटर कोचिंग में गया। क्योंकि मुझे कंप्यूटर से खेलना बहुत पसंद था। मैने वहां के अध्यापक से पूरी जानकारी ली, तथा मेरी जेब में पैसे भी थे। मेरे कागजात मेरे मोबाइल मे ही थे। अब मैंने उसी समय अपना कंप्यूटर की कोचिंग सेंटर में दाखिला ले लिया था। मैं रोज अपने कंप्यूटर की कोचिंग में जानें लगा। कुछ दिन बाद मेरे एक चाचा जी थे उन्होंने मुझसे कहा कि अभी तुम क्या करते हो ? मैंने कहा अभी मैं कंप्यूटर की कोचिंग कर रहा हूं, और तो कुछ खास नहीं कर रहा हूं। चूंकि मैं एक गांव का रहने वाला हूं, तो गांव में काफ़ी काम रहता ही है जैसे खेत का काम, बाजार का कुछ न कुछ काम, साथ ही साथ बड़ा परिवार होने की वजह से किसी न किसी का काम तो लगा ही रहता था। गांव की सबसे खास बात तो यह है कि गांव के हर परिवार में कुछ न कुछ पालतू पशु रहते ही हैं। इसी वजह से मेरे परिवार में भी कुछ पालतू पशु थे, तो उनकी देखभाल भी मैं और मेरे ताऊ जी का लड़का किया करते थे। अब चाचा ने हमसे कहा कि हमारे साथ पढ़ाने चला करो। फिर क्या था मैने बात मान ली क्योंकि पढ़ाने का शौक तो मुझे आठवीं कक्षा से ही चढ़ चुका था। ऊपर से मजे की बात यह थी कि वह स्कूल मेरे रिश्तेदार का ही था।
अब मुझे भी थोड़ी खुशी महसूस होने लगी थी। वो इसलिए कि मेरे पिता जी से जब भी कोई पूछता कि तुम्हारा लड़का क्या करता है ? पिता जी थोड़ा सा मुस्कुराते और कहते कि कुछ नहीं बस पढ़ाने जाता है। हमारे कंप्यूटर वाले अध्यापक पाठक जी भी हमारी मेहनत और काबिलियत पर खुश थे। उनका बचा हुआ काम या उनकी किसी भी बात को मैं कभी भी नकारता नहीं था। एक दिन पाठक सर ने हमसे कहा कि बेटा कुछ आगे करने का नहीं सोचा है क्या ? मैने कहा सर जी बी एस सी हो चुकी है। अब मास्टर की डिग्री का प्लान है। हालांकि बहुत से लोगों ने मुझे कई सुझाव दिए थे, कि ये कर लो वो कर लो लेकिन मुझे किसी की भी दी हुई सलाह समझ में नहीं आई, हो सकता है कि जिन लोगों ने मुझे सलाह दी उन्होंने ढंग से समझा नहीं पाया हो या तो उनकी दी हुई सलाह को मैं ही नहीं समझ पाया।

अब मेरे सम्बंध पाठक सर से कुछ ज्यादा ही पारिवारिक हो गए थे। एक दिन पता नहीं कि पाठक सर जी को क्या सूझा, उन्होंने भी मुझे एक सलाह दे डाली। वो सलाह ये थी कि बेटा आपकी अंग्रेजी भी अच्छी खासी है, और आपका दिमाग भी ठीक ठाक है तो ऐसा करो कि तुम सरकारी नौकरी की तैयारी करना नहीं चाहते हो, हमारे हिसाब से किसी प्राइवेट ( निजी ) संस्था या कम्पनी में अच्छी सी पोस्ट (पद) पर जाने के लिए एम•बी•ए• कर लीजिए। मैं कुछ देर तक तो बिल्कुल शांत बैठा रहा था, क्योंकि मैंने पहले तो इसके बारे में अपने गांव में आने वाले अखबारों में पढ़ा था। कुछ देर बाद मैंने पाठक सर से सवाल भी कर दिया कि सर इसमें खर्च कितना तक हो जायेगा ? वो हमें सारी बातें और उसके बारे में जानकारी बताते हुए बोले कि अब आपका फैसला क्या है ? क्या सोच रहे हो ? मैंने कहा सर जी इसके लिए तो घर पर भी बात करनी पड़ेगी।
अब मैं कोचिंग सेंटर से अपने घर आ चुका था। मेरे दिमाग में बार बार वही पाठक सर की बातें ही गूंज रही थीं। जैसे कि उनकी सारी बातों ने मेरे दिमाग पर जादू जैसा कर दिया हो मानो कि उनके द्वारा कही गईं वो सारी बातों ने मेरे दिमाग को अपने ही कब्जे में ले लिया हो। फिर क्या था मैं पढ़ाई के लिए पूरी तरह से पागल हो गया था। शाम हुई और मैने अपनी बात अपने पिता जी के सामने रख दी। जो बातें मुझे पाठक सर ने बताई थीं। पिता जी पहले तो थोड़ा सा चिंतित दिखाई दिए क्योंकि वजह यह थी कि खर्च कहां से लाएंगे। मैने उसी समय एक फैसला मन ही मन में कर लिया कि अब मैं ये डिग्री नहीं करुंगा। तब तक मेरी मां ने मुझे आवाज़ लगा दी, इसी वजह से मैं वहां से चला गया। शाम हुईं एवम् गर्मी भी काफी थी मई का महीना जो चल रहा था। उस समय मेरे पास कुछ पैसे हमेशा रहते थे क्योंकि मैं पढ़ाने जाया करता था, साथ ही साथ मैं अपने घर के सभी सदस्यों की बात को भी मानता था। पिता जी शाम को आए, मां से सभी बातें बताई। मां ने कहा हम लोग इतना खर्च कैसे उठा पाएंगे। मां को इस बात की ज्यादा चिन्ता थी कि कहीं पढ़ाई के बीच में परिवार वालों ने साथ छोड़ हम लोगों को चिन्ता करने की कोई जरूरत नहीं है। जब ये बात मेरे पिता जी ने बोली तो मेरी हिम्मत और मजबूत हों गई। क्यों न हो भरोसा उस ऊपर वाले पर विश्वास भी तो हम लोग बहुत करते हैं। मौका मिलते ही पिता जी ने पूरी बात परिवार के सामने रख दी। इसमें कुछ लोग तो हमारे ऊपर विश्वास भी नहीं कर रहे थे। उनको लगता था कि मैं नहीं पढ़ाई कर पाऊंगा, शायद उनको यकीन नहीं हो रहा था। मेरे छोटे चाचा और चाची ने काफी सहयोग किया और उनका ये अहसान मैं पूरी जिंदगी शायद नहीं उतार पाऊंगा। वे दोनों लोग काफी सपोर्ट करते हैं। मुझे तो ये लगता है कि वे दोनों लोग मुझे हमेशा सपोर्ट करते भी रहेंगे। इस पूरी बात को मानने में मेरे बड़े चाचा और मेरे ताऊ जी कतरा रहे थे। इसमें भी शायद इन लोगों की कोई गलती नहीं थी क्योंकि वे लोग शायद इस बात से इनकार कर रहे थे कि मैं दिल्ली उन सब लोगों की बिना सहमति से गया था। मेरा निजी परिवार और मेरे छोटे चाचा चाची एक तरफ बाकी पूरा परिवार एक तरफ था। मेरा मन काफी परेशान होने लगा, मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि अब मैं क्या करूं ? उस समय मेरे जहन में बहुत ही अजीबों गरीब सवाल आ रहे थे। यही वो परिस्थिति थी, जिससे मुझे पता चला कि लोग आत्महत्या क्यों करते हैं ? लेकिन मैने अपने दिमाग को अपने ही वस में रखा था। अगर मैं ऐसा नहीं करता तो शायद मैं यह अपनी कहानी आप लोगों तक नहीं पहुंचा रहा होता। यहां हम आप लोगों को एक बात और बताना चाहते हैं कि हम थोड़े जिद्दी किस्म के हैं। हमारी जिद किसी बेकार काम के लिए नहीं होती है । जिद हम किसी अच्छे काम के लिए ही करते हैं। हमने जिद्द बना ली थी कि हम अपनी बात को सभी परिवार के लोगों से सहमति जरूर करा लेंगे।
जहां तक मुझे याद है कि यह 8 मई 2018 का दिन था। इस दिन को मैं कभी भूल ही नहीं सकता हूं। इसका सबसे मुख्य कारण यह था कि मैं सुबह ही घर से बाहर खेतों की तरफ चला गया। सुबह के लगभग 9:30 बजे होंगे। मैं घर से बिना कुछ खाए पिए ही खेत पर आ गया था। घर के सभी सदस्यों को इस बात की चिंता थी की मेरे सर पर पढ़ाई का भूत सवार है ऐसा ना हो कि मैं कहीं घर से हमेशा के लिए कहीं चला तो नहीं गया। उनको इस बात से और डर लगा रहता था कि मैं हमेशा घर में यही कहता रहता था कि शादी नहीं करूंगा एक साधु की जिंदगी गुजार लूंगा अगर मैं पढ़ाई नहीं कर सका तो। डर तो उनको इस बात का भी था कि कहीं मैं खुद को भी ना चोट पहुंचा लूं। घर से निकला हुआ मैं बिना कुछ चाय नाश्ता किए। धीरे-धीरे दोपहर का भी समय हो रहा था। गर्मियों की दोपहर होने की वजह से गर्म हवाएं भी काफी तेज चल रही थी मुझे भूख भी लग रही थी लेकिन जीत भी तो पूरी करनी थी। मैं अपने खेत के पड़ोस में ही एक आम के बाग में चला गया। वह आम का बाग मेरे गांव से थोड़ी ही दूरी पर था परंतु मेरे खेत के काफी करीब था। उस बाग की एक विशेषता थी वह एक विदेशी हाइब्रिड आम का बाग होने की वजह से उसके पेड़ छोटे घने तथा उसकी शाखाएं काफी नीची थी इस वजह से उनमें बाहर से देखते तो अंधेरा लगता था। साथ ही साथ अगर कोई बाग से बाहर की ओर देखता तो काफी अच्छा और साफ दिखाई दे रहा था। कुछ देर पेड़ के नीचे रुकने के बाद मेरे पास मेरे छोटे चाचा जी का फोन आता है। वह हमसे जानने की कोशिश करते हैं की मैं कहां पर हूं। इसके पहले मैं कुछ कह पाता मैं बिल्कुल बेबस एवम् लाचार की तरह फूट फूटकर रोने लगा। चाचा बोल रहे थे घर आओ कहां हो ? मेरे मुंह से सिर्फ यही निकल रहा था कि मुझे अब घर नहीं आना है। तुम लोग हमारे लिए इतना नहीं कर सकते हो, जो मैं पढ़ने के लिए कानपुर जा सकूं। इतना कहते ही मैंने अपने फोन को फिसलाते हुए अपने से चार पांच कदम दूर कर दिया। फोन पर कॉल अभी भी स्पीकर पर ही चल रही थी। मेरा रोना लगातार जारी था। उस दिन मैं इतना रोया कि शायद ही मैं अपने जिंदगी में इतना कभी रोऊंगा। ऐसा लग रहा था कि जैसे अब सब कुछ खत्म सा हो गया है। चाचा और ताऊ लगातार बात कर रहे थे। मैं उनकी बात सुनकर बस रोए ही जा रहा था। कभी कभी उनके सवालों का जवाब मैं रोते रोते ही दे रहा था। सबका पहला सवाल यही था कि तुम कहां हो ? इस सवाल का जवाब मैने अभी तक नहीं दिया था क्योंकि मुझे अपनी पढ़ाई के लिए सभी लोगों से हां करवानी थी।
ये बातें मेरे माता पिता को पता चली तो मां भी उसी समय चिन्ता में पड़ गईं। पिता जी के मन में भी ढेर सारे सवाल उठ रहे थे। चिन्ता तो पूरे परिवार को ही थी। मेरी बहन, मेरी चचेरी बहन इन सभी की आंखों में भी आंसू थे। इनको यकीन ही नहीं हो रहा था कि आज हमारे घर में क्या हो रहा है। अब आप कहेंगे कि हमें ये घर की बातें कैसे पता चली क्योंकि मै तो बाग में ही था। तो बता रहा हूं कि मै जब घर आ गया था उसके कुछ दिनों बाद मैने मेरी चाची से मजाक ही मजाक में सब पूछ लिया था।
घर में ये सब हो रहा था और मैं उधर बाग में रो रहा था। अचानक से मेरे पीछे से मेरी मां के उम्र की एक औरत आती हुई दिखाई दी। ये मेरे गांव के रिश्तों के अनुसार मेरी दादी लगती थीं। उन्होंने हमसे पूछा क्या हुआ ऐसे क्यों रो रहे हो ? क्योंकि मैं इतना तेज रो रहा था कि जैसे कोई जानवर चिल्लाता है। फोन पर कॉल अभी भी स्पीकर पर चल ही रही थी। उन्होंने मेरा फोन जमीन से उठाकर मेरे चाचा से बात की, और घर में सबको बताया कि मैं एक बाग में रो रहा हूं, जो सड़क के किनारे है। यही कोई दस बारह मिनट उनको बात करते हुए होंगे। वह दादी मेरे पास तब तक बैठी रहीं, जब तक उनको रास्ते पर मेरे घर वाले दिखाई नही दिए। मैने कुछ देर बाद देखा कि रस्ते पर दस या बारह लोग हमें दिखाई दिए। उनमें कुछ लोग गांव के थे, कुछ तो हमारे घर के ही थे। अब वह दादी भी चलने के तैयार हो रही थीं क्योंकि उनके सिर पर एक घास का बोझ था। उसको सिर पर रखवाने के लिए मुझसे कहा, मैने भी उठते हुए अपनी आंखों के आसू पोंछे, उनके बोझ को उनके सिर पर रखने में उनकी मदद की। तब तक हमारे चाचा, ताऊ तथा पिता जी मुझे लेने के लिए आ गए थे। मेरे सारे कपड़ों को साफ किया क्योंकि वो मिट्टी से गंदे हो चुके थे। अब उन लोगों ने मेरी बात मान ली थी।

उस समय लगा कि रोने के बाद बहुत ही खुशी महसूस होती है, क्योंकि ये सब रोने की वजह से ही हुआ था। मुझे घर लेकर आए और मेरी दाखिला कराने के लिए तैयारी करने लगे।
अगले चार या पांच दिनों के बाद मैं कॉलेज गया और मैंने दाखिला ले लिया । अब मेरी खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था। उसके दस दिन बाद मैं दोबारा कॉलेज गया क्योंकि मुझे वहां किराए पर कमरा लेना था। वो इसलिए भी कि हमारे कालेज में छात्रावास की सुविधा उपलब्ध थी। परन्तु वहां का खर्च ज्यादा ही महंगा पड़ रहा था। पाठक सर के द्वारा कुछ बच्चे भेजे जा चुके थे तो हम भी उसी मकान में कमरा लेने पहुंच गया। पाठक सर ने मेरी पहचान उन बच्चों से भी करा दी। वो बच्चे मेरे ही इधर के थे। कुछ दिनों के बाद हमारे ही गांव का एक लड़का मेरे साथ में रहने के लिए आ गया। अब हम दोनों लोग खुशी खुशी पढ़ाई करने लगे।
किसी ने सच ही कहा है कि अच्छे काम के लिए जिद करना गलत नहीं होता है। परन्तु यही जिद अगर किसी तरह के अलग कार्यों के लिए की जाए तो वह अच्छी नहीं होती है। मेरे द्वारा की गई जिद अच्छे काम के लिए थी लेकिन मेरे घर के सदस्यों को समझ नहीं आ रही थी। साथ ही साथ अगर आपसे कोई गलत काम कराने के लिए जिद करे तो उससे जितना जल्दी हो सके, किनारा कर लेना चाहिए।।
______ मनु मनीष राजपूत ( B.SC. , M.SC. , MBA ) हरदोई ( उत्तर प्रदेश )

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 2 years ago

बहुत सुन्दर.. संघर्ष. यात्रा

Manu Manish Rajpoot1 year ago

Ji sir meri life me shayad Happiness ka koi rishta hi nahi hai

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 2 years ago

बहुत बढ़िया कहानी

Manu Manish Rajpoot1 year ago

yah koi kahani nahi hai ye mera hi itihas hai jo pichhale 3 salo me hua tha .

दादी की परी
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