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कवितागीत
जिसकी चाहत थी मुझको, वो आज मिली है। मन के कण-कण में बन गुल, वो आज खिली है। गूंज रही है बनकर स्वर, वो अंतरमन में। धड़क रही है बनकर दिल, दिल की धड़कन में। मैं पागल हूं उसके ख़ातिर, अब होश नहीं है। उससे मिलना रब की चाहत है, कोई दोष नहीं है।