कविताअतुकांत कविता
!!शीर्षक - सपने अधूरे बचपन के!!
थे मजबूर बाबा हमारे दे न सके ।
अच्छी आराम दायक जिंदगी हमें।
उम्र यूंही गुजर गई दो जून की रोटी जुटाते।
चाहकर भी देखन सके वो आराम घर के सपने।
जब सवाल रोटी का हो तब शिक्षा, स्वास्थ्य, कपड़े सबका नाम आकार ही भूल गए।
खा लिया जरूरत के झुण्डों ने बना दिया मजबूर से मजदूर उन्हें।
कर दिया बेबस हमारे बाबा को
निकला घर से लेने जो रोटी वो।
मार डाला उसे तपती आग सी धूप ने।
पर सवाल पत्नी और लाल के
भूखे पेट का हो रूका न वो थका न वो।
भूल गये हम दर्द के पन्नों को
निकल पड़े लिए रोशनी की मशाल
घर बाबा मां को देख आया जोश नया।
जल चुका था जो बचपन बचा रखा
मेरी मां ने सम्भाल अपना आंचल।
करना है दूर मां-बाबा के दर्द को
बनकर अफसर मुझको।
------- लेखिका ------
श्रीमती विशाखा शर्मा "स्मृति"
कानपुर नगर, उत्तर प्रदेश।