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सपने अधूरे बचपन के - विशाखा शर्मा स्मृति (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

सपने अधूरे बचपन के

  • 381
  • 4 Min Read

!!शीर्षक - सपने अधूरे बचपन के!!
थे मजबूर बाबा हमारे दे न सके ।
अच्छी आराम दायक जिंदगी हमें।
उम्र यूंही गुजर गई दो जून की रोटी जुटाते।
चाहकर भी देखन सके वो आराम घर के सपने।
जब सवाल रोटी का हो तब शिक्षा, स्वास्थ्य, कपड़े सबका नाम आकार ही भूल गए।
खा लिया जरूरत के झुण्डों ने बना दिया मजबूर से मजदूर उन्हें।
कर दिया बेबस हमारे बाबा को
निकला घर से लेने जो रोटी वो।
मार डाला उसे तपती आग सी धूप ने।
पर सवाल पत्नी और लाल के
भूखे पेट का हो रूका न वो थका न वो।
भूल गये हम दर्द के पन्नों को
निकल पड़े लिए रोशनी की मशाल
घर बाबा मां को देख आया जोश नया।
जल चुका था जो बचपन बचा रखा
मेरी मां ने सम्भाल अपना आंचल।
करना है दूर मां-बाबा के दर्द को
बनकर अफसर मुझको।

------- लेखिका ------
श्रीमती विशाखा शर्मा "स्मृति"
कानपुर नगर, उत्तर प्रदेश।

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Anujeet Iqbal

Anujeet Iqbal 4 years ago

वाह

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 4 years ago

सुन्दर..!

वो चांद आज आना
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तन्हाई
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प्रपोजल
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माँ
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