कवितालयबद्ध कविता
( होली आई और कुछ रंग छिड़ककर, जीवन में सतरंगी आभा बिखेरकर, अपने संग फागुन को भी लेकर चली गयी मगर अभी भी खुमार बाकी है और ना जाने क्यों इससे बौराये से बावरे मन को अब भी लगता है कि मानो "फागुन आया" )
फागुन आया
फागुन आया
धरती का प्रिय
पाहुन आया
गूँजी मन-
वृंदावन में
जैसे कान्हा की
मुरली की धुन
आया फागुन
आया फागुन
है घुली अभी तक
जाने क्यूँ
हर एक रंग में
मादक भंग
चकाचक चढा़
भंग का रंग
है रंग चढा़ ये
अंग-अंग
छूटने पाये ना
ये रंग
पडे़ ना अभी
रंग में भंग
इंद्रधनुष से बिखरे-बिखरे
निखरे-निखरे इन रंगों से
बनी रहे यह मदहोशी
ढाई अक्षर की परिभाषा
समझाती सी यह खामोशी
मस्ती के इस आलम से
मन को कर लेने दो अठखेली
मत करो बंद मुठ्ठी अभी
खुली रहने दो
कुछ पल और
मन की यह अधखुली हथेली
मत बंद करो
मन के कपाट
अभी खिलने दो
इसका रूप विराट
कहीं लौट ना जाये
यूँ ही उल्टे पाँव ही
मन की यह अल्हड़ सहेली
आज सुलझ ही जाये, देखो
मन की यह, अब तक
अनबुझी सी गूढ़ पहेली
चोरी-चोरी,
चुपके-चुपके
कदम बढा़ती
हौले-हौले पास आती
ये उमंग
इसमें सिमटी
मन की अल्हड़ सी तरंग
कहीं रूठ ना जाये
मन के धागे में
अभिलाषाओं के
मोतियों की माला ये
कहीं टूट ना जाये
मन की मादक
मधुशाला में
छलकाती मधुचषक
उमंगों की अल्हड़
मधुबाला ये
कहीं रूठ ना जाये
समय की धारा में
चहुँ ओर
रंग-तरंगों में सिमटे
इन बूँद-बूँद से
लमहों की ये डोर
कहीं फिर छूट ना जाये
रचने दो मन के द्वारे पर
एक विलक्षण रंगोली
आज खेल लेने दो मन को,
मन संग, मन भर
आँखमिचोली
बन जाये यह मस्त खुमारी
अब जीवन की हमजोली
आये फिर लेकर अपने संग
पल-पल बिखेरती नूतन रंग
एक अद्भुत होली
मन के इस ताने-बाने में
सपनों के सतरंगी धागे बुन
मन की बगिया में कोयल की
कुहू-कुहू की तानें सुन
बस यही संदेशा लेकर
फिर से आये फागुन
धरती का प्रिय
पाहुन फागुन
हम सबके जीवन में
फिर-फिर आये फागुन
द्वारा :सुधीर अधीर