कहानीसामाजिक
लघुकथा
#शीर्षक
" एसिड अटैक " 🍁🍁
"कौन... कौन... है वहाँ पर ?
'विजया ' ने सशंकित हृदय लिए कांपती हुई आवाज में पूछा।
" ओहृ तरुण ! मुझे मालूम है यह तुम ही हो मैं तुम्हारी खुशबू पहचानती हूँ"
"तुम्हारी आवाज नहीं भूल पाई हूँ। उस वक्त से आज तक मेरे कानों में गूंज रहे हैं"
" मुझे मेरे हाल पर छोड़ दो तरुण " बोल विजया ने अपने चेहरे को दुपट्टे के आवरण में छिपा लिया।
'तरुण' कॉलेज में उसका सीनियर एम. कॉम का स्टूडेंट था जबकि विजया बी.कॉम फाइनल इयर की छात्रा।
" लेकिन क्यों? विजया मैंने वर्षों तुम्हारा इंतजार किया है ,
आज अपने पैरों पर खड़े हो कर तुम्हारा हाथ माँगने आया हूँ क्या मुझको निराश करोगी ? "
" फिर तुम तो अपने नाम की तरह आज भी 'विजया ' ही हो "
" नहीं तरुण! विजया हुआ करती थी अब नहीं अब तो समाज में फैले नये भयंकर अपराध की भुक्तभोगी डरावनी, जली आंखों वाली असहाय अबला बन कर रह गयी हूँ,
"इतना सब कुछ सह लिया है इस जिंदगी में कि अब मेरे लिए कोई दर्द माएने नहीं रखता "
"मैं तुम्हारी खुशहाल जिंदगी को अपनी भयानक छवि से नरक नहीं बना सकती"
चेहरे पर पड़े घूंघट के उपर से ही तरुण ने उसके मुँह को बंद कर दोनों कंधों से थाम लिया है ,
" लेकिन इसमें मेरी क्या गलती है ?
विजया कि दूसरे के किए अपराध की सजा तुम मुझको अपने से अलग होने के निर्णय द्वारा देना चाहती हो ? "
" काश... कि उस दिन संगीत कम्पीटीशन के बाद तुम्हें अकेले छोड़ कर जाने की जल्दी नहीं मचाता "
" उस निर्दयी अजय की बातों में मैं आ गया था। हम तीनों ही तो एक दूसरे पर कितना विश्वास करते थे ना "
" इस विश्वास की आड़ में छिपे अजय के घिनौने चेहरे को हम पहचान ही नहीं पाए"
विजया फूट-फूट कर रोने लगी।
उसे कॉलेज की उस संगीत प्रतियोगिता की भयानक शाम की एक-एक घटना याद आ गई,
जब विजया ने ,
" ऐ मालिक तेरे बंदे हम ... गा कर शमा बांध दिया था " उस दिन विजया के गायन को सभी ने मुक्त कंठ से सराहा था। बाद में विजया कंम्पीटीशन में सेकंड रनर अप रही। विजया के साथ ही सभी सहपाठियों ने तरुण को भी बधाइयों से भर दिया था।
कॉलेज में तरुण और विजया के गाढ़े होते संम्बंध से सभी वाकिफ थे।
कम्पिटीशन खत्म होने के बाद सभी छात्रों ने एक दूसरे की जम कर तारीफ की थी।
तभी अचानक ही तरुण के घर से फोन आ जाने के उसे फंक्शन बीच में ही अधूरा छोड़ कर चले जाना पड़ा,
"चलते वक्त मैंने ही अजय को तुम्हें घर तक छोड़ देने को कहा था। "
" बस मुझसे यही गलती हो गई विजया मैं अजय के मन में आए हुए पाप को न पहचान कर उसपर विश्वास कर बैठा था ,
" जबकि वह मेरी तुम्हारी गाढ़ी मित्रता से मन ही मन मुझसे ईर्ष्या करता था "
क्योंकि वह हर तरह के हथकंडे अपना कर भी मुझसे आगे नहीं निकल पाता था"
"उस दिन से ले कर आज तक मैं पश्चाताप की अग्नि में लगातार जलता रहा हूँ विजेता "
"मैं तब भी तुम्हारा मुरीद था और आज भी हूँ प्लीज मुझको अपने से अलग मत करो "
फूट पड़ी विजया ...,
" अब तो उस भीषण दुर्दांत को उसके किये की सजा भी हो गई है। उसे जेल हो गई है"
"फिर जिस घटना की तुम जिम्मेदार नहीं उसकी दोषी तुम कैसे हो सकती हो ?"
" नहीं तरुण कैसे समझाऊं तुम्हें मैं अपना विद्रूप चेहरे के साथ तुम्हारे जीवन को ग्रहण नहीं लगा सकती "
"और मैं ? मैं तुम्हें इस हालत में अकेला छोड़ सकता हूँ ?
सदा साथ निभाने की कसमें खाई हैं हमनें " तरुण ने लगभग रुंधी हुई आवाज में पूछा।
" मैं आज तक जिंदगी में कभी नहीं हारा हूँ और तुम कह रही हो आज जीवन के इस महत्वपूर्ण मैच को तुम्हारी नादानी भरी बातों में आ कर हार जाऊं " ,
" नहीं कदापि नहीं
" हम अगले महीने कोर्ट जा रहें हैं एक दूसरे को जीवनसाथी बनाने के लिए... "
" सोचो यही कुछ घटना शादी के बाद घटी होती तो क्या तब भी तुम... "?
इस बार निरुत्तर हुई 'विजया ' ने 'तरुण' के होंठों पर अपनी कांपती उंगलियां रख दी हैं।
स्वरचित /सीमा वर्मा