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डर - Sunita Agarwal (Sahitya Arpan)

कहानीसामाजिक

डर

  • 274
  • 7 Min Read

"मीलॉर्ड, मैंने पूरे होशोहवास में उस इंसान पर एसिड डाला है जिसने मेरी दीदी के खूबसूरत चेहरे को विकृत करके समाज से अलग बंद कमरे में जिंदा लाश की तरह तिल तिल मरने के लिए छोड़ दिया....मैं देखती हूं हर पल उसका बुरी तरह से जला हुआ चेहरा जो उसका था ही नही कभी....उसके गोरे हाथ जिस पर सुहाग की चूड़ियां सजने वाली थी अब उस पर फफोले भरे चितकबरे धब्बे है...जिंदगी जीना ..साँस लेना भी अब उसके लिए एक जंग हो चुका है तन का और तन से भी ज्यादा मन का...."
एसिड फेंककर इसने जो मर्दानगी दिखाई है उस पीड़ा की जलन दर्द मैं इसकी आंखों में भी देखना चाहती थी.....चाहती थी कि यह भी उस नर्क से गुज़रे जिससे गुज़रते हुए एक लड़की की आत्मा तक झुलस जाती है...एक वीभत्स सोच ..एक सेकंड, एसिड फेंका और काम खत्म.....क्या सच में सब कुछ खत्म हो जाता है?...नही मीलॉर्ड ..लड़की उम्रभर उस गुनाह की सज़ा भुगतती है जो उसने किया ही नही और यह कोई नई बात भी नही....मौत देना तो आसान है पर इस मौत को साँसों की निरीह डोरी के सहारे घिसट घिसट कर जीना....जीना नही मीलॉर्ड उसे मरना कहते है हर दिन हर रात....."
"मीलॉर्ड मैं पूछना चाहती हूँ यहां बैठे हर एक इंसान से ...लड़कियाँ न हुई ज़र खरीद गुलाम हो गयी..कोई अस्तित्व नही क्या हमारा..क्यूँ पुरुषों को न सुनना गवारा नही...पैदा होते ही इन्हें अधिकार विरासत में मिल जाते है क्या ?....अभी तक एसिड की शिकार सिर्फ लड़कियाँ होती थी आज एक लड़की ने सिर्फ इसलिए यह गुनाह किया क्योंकि जो डर कल तक हमारे चेहरों पर था आज वही डर मैं इन लड़कों के चेहरों पर भी देखना चाहती हूँ....

सुनीता अग्रवाल

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Ankita Bhargava

Ankita Bhargava 4 years ago

अच्छी कोशिश

नेहा शर्मा

नेहा शर्मा 4 years ago

अच्छा लिखा है आपने। पर इसे और बेहतर कर सकती हैं आप

दादी की परी
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