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"मैंने जो कुछ अपने दादाजी से सीखा " 🍁🍁 - सीमा वर्मा (Sahitya Arpan)

कहानीसंस्मरण

"मैंने जो कुछ अपने दादाजी से सीखा " 🍁🍁

  • 120
  • 22 Min Read

" संस्मरण कथा "
" मैंने जो कुछ अपने दादाजी से सीखा" 🍁🍁

यह सँस्मरण मेरे दादाजी को मेरी तरफ से श्रद्धांजलि है।
वे बहुत लंबी उम्र जिए,
" मैं पूरे गाँव का दादा हूँ "
जब वे कहते तो उनकी अनुभवी आंखें चमक जातीं। गाँव का हर व्यक्ति उन्हें दादा ही कहता था।
उनकी बहुत बड़ी खूबी यह थी कि उन्हें बहुत सी कहानियां आती थीं। एक जमाने में वे मिडिल स्कूल के टीचर रह चुके थे। सेवानिवृत्ति के बाद उन्हें पेंशन मिलती थी।

वे बड़े गर्व से बताते कि ,
" मैंने जितनी नौकरी की है , उससे ज्यादा दिनों तक पेंशन पाई है। " और इतना कह कर वे इतना हँसते कि उनकी आंखों में पानी आ जाता ।
मैं जब छोटी थी तब मेरे पिताजी हमें अक्सर उनके पास गाँव पँहुचा दिया करते। जहाँ उनके साथ पढ़ने और खेलने के अणगिणत साधन हुआ करते थे।

वे भी बेसब्री से हमारा इंतजार करते ।
दादा जी को पढ़ने का बहुत शौक था और मुझे कहानियां पढ़ने का।
उनके पास कहानियों की बहुत सी पुस्तकें थीं।
बचपन में वे मेरे सबसे अच्छे दोस्त थे।
" वे हमेशा मुझसे कहते , पत्र-पत्रिकाएं पढ़ना बहुत जरूरी है आप इससे अद्धतन ( अप टू डेट ) बने रहते हैं "

मैं स्कूल में लंबी होने वाली गर्मी की छुट्टियों का इंतजार किया करती कि मुझे दादाजी के पास जाने को मिलेगा और मैं वहाँ भरी दोपहरी की चलती लू में आम के बागीचे में इधर-उधर दौड़ती फिरूँगी।

मुझे मेरे बचपन की एक घटना याद है। मैं दादा जी के साथ खेतों पर चली गई थी जहाँ वे तो श्रमिकों के साथ व्यस्त थे और मैं पटवन वाले पानी में बहुत देर तक खेलती और फिर भीगे कपड़ों में ही रह गई थी।
जब बेर डूबे उनके साथ घर लौटी तब यह जान कर माँ बहुत गुस्साई थी।
उन्होंने जब मेरे हाथ थामे तो कहीं ,
" लगता है तुम्हें हल्का बुखार आ गया है।
जल्दी से कपड़े बदलो "
और मेरे लिए काढ़ा बना कर लाईं। मुझे भी थोड़ी थकान महसूस हो रही थी। काढ़ा पी कर मैं बिस्तर में लेट गयी।

रात में जब माँ ने खाने के लिए उठाया तब बताया कि दादा जी खुद थके होने के बाबजूद मेरे सिरहाने बैठे रहे थे और बुखार उतरने के बाद ही वहाँ से उठे थे।

मेरे दादा जी को देशाटन और लोगों से मिलने-जुलने का बहुत शौक था। वे कितनी ही दफा अकेले ही घूमने निकल जाते।
एक बार मैंने उनसे कहा भी था कि ,
" आप अपने अनुभवों पर कोई कहानी क्यों नहीं लिखते ? "
वे मुस्कुरा पड़ते और मुझे गोद में बिठा कर प्यार से दुलराते हुए बोले ,
" ननकी जब तुम बड़ी होना तब मुझपर कहानी लिखना , मैंने जो कुछ बताया है तुम्हें उसे ही लिखना " ।
मैं जब तक स्कूल में रही लगभग हर छुट्टियों में उनके पास जाती रही ।

फिर बाद के दिनों में थोड़ा अशक्त हो जाने पर मेरे पिताजी उन्हें अपने पास ही रखने लगे कारण हमारे पिता उनकी एकमात्र संतान थे।

भाग ... २ 🍁🍁
वे पहले से बहुत कमजोर हो गये थे लेकिन पढ़ने- पढ़ाने का अब भी बेइंतहा शौक था। हाँ थोड़ी तकलीफ होती थी क्योंकि उन्हें आंखो से कम दिखता था।
कुछ देर पन्ना पलटते फिर पुस्तक बंद कर देते।
मुझे बराबर कहते ,
" तुमने इधर क्या पढ़ा ,किताब या कहानी तुम कहती थी कुछ लिखूंगी "
अब मैं क्या कहती कुछ जबाब देते नही ना।
उनकी बहुत इच्छा रहती हमें कहानी सुनाने की लेकिन ऐसा करते वक्त उनकी एक डिमांड रहती वे कुछ भी सुनाने के पहले कहते ,
" कहानी सुनने के पहले एक सफेद कागज, पेसिंल , और कलर ले कर आओ "
मैं पूछती , " कलर "
" हाँ तुम्हें जो भी कलर पसंद है , मोम स्केच या पेटिंग या जो भी तुम्हें पसंद हो " ।
मैं दादा की बातों का पूरा मान रखती।
फिर वो पूरे इतमिनान से आंखें मूँद कर अपने आज तक के तमाम प्रकार के अनुभव सुना डालते ।
फिर उसके बाद उन्हीं तमाम अनुभवों को हमें हमारे ढ़ंग से लिखने को कहते साथ में उसके अनुसार ही अपने मनपसंद रंगों से चित्र काढ़ने को कहते।

मेरे मन में तब यह खयाल आता कि ,
" आप इतने अच्छे किस्सा गो हो दादा जी लेकिन आपने कभी लिखने का प्रयास नहीं किया "
इधर मेरे दादाजी मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे।
जैसे मेरे मन के भाव समझते हुए ,
" एक बार मुझे भी इस बात का गुमान हो गया था कि मैं भी कहानियां लिख सकता हूँ इस गुमान में मैं ने कहानी लिखना शुरु भी किया लेकिन मुझे जल्दी ही यह एहसास हो गया कि कहानी सुनाना और बात है और कहानी लिखना दूसरी "
" अब समझ गई , समझी कि नहीं ?
" कहानी सुनना या पढ़ना और सुनाना या लिखना दोनों अलग-अलग चीजें हैं "
"ओ अच्छा "
" और हाँ ननकी जो कहानी को सुनकर उसे अपने तरीके से समझने का, लिखने का प्रयत्न करता है वही अच्छा कहानीकार बन सकता है "

यह मेरे बीते दिनों की बात है। मेरे दादाजी को मुझमें कुछ तो संभावनाओं के बीज अवश्य दिखे होगें ।
फिर आगे जब मैंने अपनी टूटी-फूटी सी कहानियां लिखनी शुरु की तो महसूस हुआ कि ,
" कहानी जैसी सुनी जाती है वैसी लिखी नहीं जा सकती ,
" सुनी हुई कहानी और जाने हुए अनुभव को फिर से अपने भावों भरे मनचाहे रंगो में डुबो -डुबो कर लिखना ही ' पुनर्रचना ' है।
आपके क्या खयाल ... हैं ?
तो मैं अपने दादा जी की अंतिम इच्छा के अनुसार ही उनसे सुनी कहानियों को लिखने का प्रयास करती हूँ।
समयानुसार एवं स्थानानुसार उनमें विभिन्न रंगो के चटखारे लगा कर।

सीमा वर्मा 🍁🍁

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Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 2 years ago

दादा जी की बहुत सुन्दर और भावपूर्ण स्मृतियाँ..!!

सीमा वर्मा2 years ago

धन्यवाद सर

Kamlesh  Vajpeyi

Kamlesh Vajpeyi 2 years ago

दादा जी की बहुत सुन्दर और भावपूर्ण स्मृतियाँ..!!

सीमा वर्मा2 years ago

जी हार्दिक धन्यवाद सर

दादी की परी
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