कविताअतुकांत कविता
होली
होली खेलूंगी उस औघड़ संग
जो भस्म से धूसरित हो
सर्प का जनेऊ पहन
लोटता है मणिकर्णिका घाट पर
और उड़ाता है रक्त का गुलाल
मांस मज्जा का अबीर
माया के झीने धागे से बनी देह
होलिकानल में भीग जाने पर
करती है पारदर्शी नृत्य
उस औघड़ संग
और बचे भस्मकूट में
खिल उठते हैं नवजीवन के पलाश
संसार से कपट कर
हृदयगति का लोभ त्याग कर
लगती हूं औघड़ के कंठ, जीवनांत में
और खेलती हूं होली एकांत में
अनुजीत इकबाल
सुंदर कार्य एरोन जी
शुक्रिया अनुजीत जी इसका सारा श्रेय वेब डेवलोपेर्स को जाता है उन सबकी मेहनत है