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सत्य बना यूँ शरणागत - Sudhir Kumar (Sahitya Arpan)

कहानीव्यंग्यप्रेरणादायकलघुकथा

सत्य बना यूँ शरणागत

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( श्रीमद्भागवत की यह कथा तो हम सबने पढी़ या सुनी ही होगी कि कलि ने परीक्षित से स्वयं के लिए पाँच स्थान माँगे और देखते ही देखते उस युग का नया स्वामी बन बैठा. अब कल्पना करें कि कलियुग अपने चरम पर है और आहत सत्य एक शरणागत बनकर स्वयं के लिए शरण की याचना कर रहा है. अपने अल्पज्ञान द्वारा यह कल्पना आप सबके साथ साझा करना चाहता हूँ और इसके साकार होने के लिए आप सबकी शुभकामनाएं चाहता हूँ )
       महाराज परीक्षित से वधशाला, मधुशाला, वेश्यालय, द्यूतालय और स्वर्ण, ये पाँच स्थान पाकर कलि उस युग की चेतना पर एकाधिकार कर बैठा. उसके दुष्प्रभाव से दिग्भ्रमित होकर साक्षात् धर्म के अनुज के वंशज परीक्षित ने समाधिस्थ शमीक मुनि के गले में एक मृत सर्प डाल दिया और उनके पुत्र श्रंगी के शाप के कारण अपने पूर्वजों के चिरशत्रु तक्षक के दंश द्वारा अकालमृत्यु को प्राप्त हुए. सात दिन तक शुकदेव जी से भागवत कथा सुनकर सद्गति प्राप्त की.

      कलि के लिए तो यह सब बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने जैसा धा. जनमन, संवेदना, चेतना, ये सब कलि के अधीन हो गयी. सत्ता, न्याय, सूचनातंत्र, अर्थतंत्र, इन सब पर एक-एक करके उसकी विजयपताका फहराने लगी. सत्य असत्य के भय से थर-थर काँपता, मूक होकर रह गया. धर्म पुनः अज्ञातवास में चला गया. यत्र, तत्र, सर्वत्र कलि एकछत्र राज्य करने लगा और धीरे-धीरे चरम शिखर पर जा पहुँचा.

     परिवर्तन प्रकृति का नियम है. हर रात की एक सुबह होती है और हर तिमिर की परिणति आलोक में होती है. हर शिखर अंततोगत्वा शून्य तक पहुँचता है. एक दिन सत्ययुग अज्ञातवास से बाहर आकर स्वयं के लिए एक अस्तित्व खोजता हुआ कलि के द्वार पर दस्तक देता है. कलि अब हाथ में लाठी लिये, धर्मरूपी वृषभ पर स्वयं प्रहार करता हुआ नहीं मिलता. वह तो सत्ता के शीर्ष पर विराजमान है. धर्मरूपी वृषभ अपने चार चरण, सत्य, न्याय, मानवता और सद्भाव खोकर असहाय सा धूलिधूसरित, जीर्ण-शीर्ण, मृतप्राय, धराशायी होकर उसके सामने पडा़ है और कलि के अधीनस्थ संपूर्ण तंत्र उसमें यत्किंचित् चेष्टा देखते ही उसका दमन कर देते हैं.

        तभी सत्य-युग एक भिक्षुक बनकर वहाँ आता है और अपने शक्तिस्तंभ धर्म की दुर्दशा को देखकर अधीर हो उठता है. एक निरीह याचक बनकर करबद्ध प्रणाम करने लगता है और कलि से निवेदन करता है कि मुझे भी सिर छिपाने की जगह मिल जाये. देवालय, विद्यालय, न्यायालय और सचिवालय, चारों स्थानों मे शरण मिल जाये.

     कलि अहंकार के साथ उसे दुत्कारता है,  "क्या मुझे भी परीक्षित जैसा मूर्ख समझते हो कि चार-चार स्थान देकर अपने पाँवों पर कुल्हाड़ी मार 
लूँ ?  या फिर बलि की तरह तीन पग भूमिदान करके सब कुछ गँवा दूँ. या फिर यक्ष की भाँति धर्म के उत्तरों से प्रभावित होकर उसके चारों अनुजों को पुनर्जीवित कर दूँ. मेरे साम्राज्य में तुम्हारा कोई स्थान नहीं.  ".

      सत्य को यक्ष और धर्मराज का वह संवाद स्मरण हो उठा और सहसा एक युक्ति उसके मन के अंधकार में बिजली बनकर चमक उठी. उसे याद आ गया  धर्मराज का एक उत्तर ," मन का वेग पवन से भी तेज होता है ".  

       उसने भी नीति का सहारा लिया और अपनी समस्त पीडा़ को चेहरे पर समेटकर आत्मसमर्पण की मुद्रा में गिड़गिड़ाया, 

  " क्या एक स्थान भी नहीं ? "

       अब इसे अति आत्मविश्वास कहें,  या फिर सत्य की संगति का प्रभाव. नियति ने कलि के मुँह से कहलवा ही दिया, " इन चारों स्थानों को छोड़कर कोई एक स्थान माँगो तो मैं उस पर विचार करूँगा. "

     और सत्य युग ने मौकै पर चौका मार दिया, " मुझे जनमन में बसने के लिए स्थान दे दो "

      अरे, यह क्या ? कलियुग ने " तथास्तु " कह दिया.

 .     देखते ही देखते इतिहास स्वयं को एक नये रूप में दोहराने लगा. कालचक्र अपना एक चक्कर पूरा करके फिर आगे घूमने लगा. जनमन के द्रुतगामी अश्व पर आरूढ़ होकर सत्य असत्य को एक-एक करके सब जगह धूल चटाता हुआ सभी क्षेत्रों से पलायन के लिए विवश करने लगा. धर्मरूपी वृषभ के चारों चरण पुनः प्रकट हो गये और वह अपनी खोई शक्ति को पाकर ऊर्जावान हो गया. महाकाल स्वयं को शिवरूप में लाकर डमरू बजाने लगे और शेषशायी नारायण पुनर्जागृत होकर दिव्य स्मित से तीनों लोकों को धन्य करने लगे.

     क्या यह कल्पना साकार हो सकती है ? क्या जनमानस में सत्य को शरण मिल सकती है ? मगर अभी कलि का चरम आया ही कहाँ है.? 
अभी तो ना जाने, और भी क्या-क्या देखना शेष है.

द्वारा : सुधीर अधीर

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दादी की परी
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