कविताअन्य
दर्पण
दर्पण बड़ी ज़ोर से हँसा
मेरे चेहरे को देखकर ।
किस उम्मीद पर झाँका तुमने,
क्या मैं तेरी तारीफ़ करूँगा।
गए वह जमाने जब तू गुल थी
मैं तुझपे फ़िदा था तू गुलज़ार थी।
हंसी मेरे लबों पे आई कुछ इस तरह,
अरे दीवाने तूने मेरे दिल में न झाँका,
मैं तो दिखाने आई थी कान्हा की कलाकारी।
बहुत रूच-रूच के संवारा मेरे आनन को,
हर लकीरों में मेरे पुण्य दिखाए,
ज़रूरी तो नहीं था कोई इतनी उम्र बिताए।
तुझमें और मुझमें क्या फ़र्क़ है,
तू झूठ नहीं बोलता,मैं सच नहीं छुपाती।
उम्र पर झुर्रियों का एक अलग नशा है,
हर किसी को कहाँ नसीब,नक्श-ए-शिकन है।
गहराती रेखाओं का अर्थ है जीवन में तपना,
कुन्दनबनकर दु:खों की भट्टी से निकलना।
“शिंजनी” कहे दर्पण तेरा भाग्य कहाँ?
जो मुझ सा हो तेरा आकर्षण।
मैंने पाया है इसको जीवन का करके घर्षण।
मीरा शिंजनी