कविताअतुकांत कविता
रोशनी की आस मे एक कोपल कब से थी सिमटी पड़ी
और पेडो के पीछे छिप, खेल रहा था सूरज अठखेली बड़ा
देख नीचे पड़े कुछ पत्ते जो थे कुछ सूखे कुछ मुरझाए
जिन पर पड़ी ना सूरज की थोड़ी सी भी रोशन चह्टा
जिन्हे देख मासूम कोपल थोड़ी डरी, थोड़ी सहमी
हो ना जाए ऐसी ही दशा, इसी डर से पड़ी अधखुली, ना पुरजोर बड़ी
देख उस कोपल को आँधियारो मे पड़ा
दूर एक मुसाफिर देर से उसको कब से तकता रहा
फिर कुछ सोच मुसाफिर ने कॉच का एक टुकड़ा दिया ज़रा एक टहनी से लटका
और पेडो के पीछे जो सूरज था कही छिपा
काँच के टुकड़े मे कोपल को अब दिखे उस सूरज का प्रतिबिंब सदा
मुसाफिर की उस एक कोशिश ने रोशन किया नन्ही सी कोपल का जहाँ
और दूर जाता मुसाफिर दे गया मुझे एक नयी सोच एक नया ताजापन
क़ि चलते हुए अपनी मंज़िल की राह पर, करे बस एक कोशिश,
बनाए अपने जीवन को कीमती, किसी की किस्मत बनकर