कहानीप्रेरणादायक
#शीर्षक
" सुलभा ताई "
स्थानीय विधालय की अवकाश प्राप्त शिक्षिका सुलभा जिन्हें सारा मुहल्ला " सुलभा ताई" के नाम से जानता था। उसकी जिंदगी इस समय ऐसे दोराहे पर आ खड़ी हुई है। जहाँ अपनो ने तो किनारा कर लिया है और
" परायों की भीड़ में किसे अपना जाने ? वे यह निर्णय नहीं ले पा रही हैं।
इसके बाबजूद हर बार की तरह उसने अपनी हिम्मत नहीं टूटने दी है। अपनी इसी हिम्मत के बल पर वह आज तक जिन्दगी को हराती आई है।
अपनी चारो तरफ नजर घुमाने पर जब उसे किसी भी ... सहारे के लिए बढ़े हुए हाथ नहीं नजर आए ।
तो पिछले दिनों ही बुजुर्ग स्त्रियों के लिए बने इस अनाथालय में रहने का निश्चय कर अधेड़ उम्र की सुलभा यहाँ चली आई है।
" क्या करतीं "?
जब अपने ही उसकी उम्र भर की जद्दोजहद को नकार उनके सम्पूर्ण आस्तित्व को ही झुठलाने में लग गये हैं।
वे सगे सम्बन्धी... एवं छोटे भाई-बहन, माता-पिता की मृत्यु के बाद से जिनकी खातिर उन्होंने अपना समस्त जीवन होम कर दिया है। उन स्वार्थी भाई-बहनों द्वारा ही उनके त्याग को अस्वीकार कर दिए जाने पर दूसरा कोई मार्ग भी तो नहीं नजर आ रहा था।
यहाँ सभी स्त्रियां उसकी समकक्ष हों ऐसा नहीं है ? बहुत सी जमाने द्वारा सताई हुई उम्र स्त्रियां भी रह रही हैं।
उनकी दिनचर्या बेहद नीरस और उबाऊ है । जिसे आभिजात्य रुचि वाली सुलभा हठात् स्वीकार नहीं कर पा रही है।
वे सुबह होते ही अपने दाना पानी के इन्तजाम में जुट , एक दूसरे से लड़ती-झगड़ती व्यर्थ में ही निरर्थक लांक्षण लगा दुनिया से मिले रँजो-गम को आपस में चीं-चापड़ करके निकाल देती हैं।
यों कह सकते हैं यहाँ के नीरस परिवेश में यही सब उनके मनोरंजन के सर्वोत्तम साधन साबित होते हैं।
फिर उस आवेग के थमते ही 'अनोखे सत्संग' में जुट जातीं।
एक से बढ़ कर एक प्रेम और आशनाई के किस्से चटखारे ले कर सुनती -सुनाती विचित्र किस्म की खुशी प्राप्त करती हैं।
शाम को अर्ध्यव्यस्क मैनेजर या ट्रस्टी के आने पर सारे झगड़े-फसाद छोड़ एकजुट पंक्तिबद्ध खड़ी कुछ पा जाने के लालच वश अपने अभाव के किस्से सुनाने लगती।
कोई-कोई तो विशेष सुविधा पाने की लालच में चापलूसी पर उतर आतीं । इधर मैनेजर भी जो उनकी हम उम्र का ही रहता है।
किसी ऐसी सनाथा की खोज में रहता जो एकदम से ' ढली' हुयी ना रह कर कुछ दम-खम वाली हो और जिसे वह अपनी कृपादृष्टि से कृतार्थ कर सके।
सुलभा इस अजीब और गलीज से वातावरण में किसी प्रकार का सामंजस्य नहीं बैठा पा रही है। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में हिम्मत भी नहीं हारती।
उनके पवित्र नैसर्गिक पेशे शिक्षण से जुड़ी शिक्षा के प्रचार-प्रसार करने वाले स्वभाव जागृत हो उठे हैं।
वो फिर से हार नहीं मानती हुई अनाथालय को नारी सुधार गृह में परिवर्तित करने की ठान, जिंदगी के नये चैलेंज को स्वीकार कर लेती है। एक बार फिर से अपनी समस्त उर्जा समेट वह उन सब वक्त से पराजित स्त्रियों को एक जुट करने का दृढ निश्चय ले चुकी है।
अब यही मेरी दुनिया और यही परिवार है।
जिंदगी के हर उतार-चढ़ाव को स्वीकार कर उसका शुक्रिया अदा करती हुई स्वयं को हल्का महसूस कर रही है।
स्वरचित /सीमा वर्मा