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ओ कान्हा - Deepti Shukla (Sahitya Arpan)

कविताअतुकांत कविता

ओ कान्हा

  • 133
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ओ कान्हा!
ये मन-मृग मेरा
क्यू डोल रहा?
तेरी आँखो से
क्या कुछ
बोल रहा?
तेरी कस्तूरी
ही तो
ये मृग-मन
वन वन
हर पल
हर छन
ढूंढ रहा I
ओ कान्हा!
ये मनमयूरा
अब
अंदर ही अंदर
टूट रहा...
राधा बन
तुझसे
रूठ रहा...
जीवन माटी सा
तेरी प्रीत-प्यास
में सूख रहा...

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