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कविताअतुकांत कविता
ओ कान्हा! ये मन-मृग मेरा क्यू डोल रहा? तेरी आँखो से क्या कुछ बोल रहा? तेरी कस्तूरी ही तो ये मृग-मन वन वन हर पल हर छन ढूंढ रहा I ओ कान्हा! ये मनमयूरा अब अंदर ही अंदर टूट रहा... राधा बन तुझसे रूठ रहा... जीवन माटी सा तेरी प्रीत-प्यास में सूख रहा...