कहानीसामाजिक
#शीर्षक
" टूटती-दीवार " 💐💐
गांव की चौहद्दी पर स्वागत के लिए खड़े चाचा को देख खुश और हैरान रघुवीर,
"यह मेरे लिए एक सुखद एहसास था क्योंकि पिछले कितने ही साल से दोनों परिवार के बीच अबोला चल रहा था"
"किन्हीं कारणों से चाचा और मेरे पिता ने अपने बीच कुछ अहं खड़े कर लिए थे"
जीवन में ऐसे सुखद पल जो अनमोल होते हैं, उन दो भाईयों ने अकेले रह कर भोगे थे। उन के बेटों की शादियों में हम नहीं गए थे और मेरे भाइयों की शादी में वे नहीं आए थे।
" पता नहीं स्नेह के तार क्यों और कैसे टूट गए थे?
जिन्हें जोड़ने का प्रयास यदि एक ने किया तब दूसरे ने स्वीकार नहीं किया था और यदि दूसरे ने किया तो पहले की प्रतिक्रिया ठंडी रही थी"
‘‘कैसे हो, रघु ? बच्चे साथ नहीं आए?’’ चाचा के स्वर में मिठास थी और बालों में सफेदी।
कितने दिनों से उन्हें देखा नहीं था। वे सेना में थे। लिहाजा कभी वे तो कभी मैं नहीं होता। कितना बदल गये थे।
" अकेले आए हो?" मेरी आवाज नहीं निकल रही थी।
एकाएक उनसे लिपट कर मैं रो पड़ा।
‘‘पगले, रोते नहीं। देख, चुप हो जा "
कितना ही अपनापन, जो मुझमें और चाचा के बीच में था। वो कहने से परे था।
" मैं उनकी उंगली पकड़ कर ही बड़ा हुआ था, वे अपने बेटे से ज्यादा मुझे मानते थे क्योंकि घर में दूसरी पीढ़ी में मैं सबसे बड़ा था"।
दोनों घर के अलगाव से मन में कितना कुछ दबा पड़ा था। वो बांध तोड़ बह निकला था।
‘‘अच्छा, इतने बड़े हो गये चाचा, अपने बाल देखो, अब सफेद हो रहे हैं।’’
‘‘हां,’’
‘‘जीवन ही बीत गया अब तो। "
‘‘ घर में सब कैसे हैं ?
मेरे पिता तीन वर्ष पूर्व ही गुजर चुके थे, मेरा तबादला इस बार सुदूरवर्ती इलाके में हो गया था,
" लिहाजा वहाँ जाने से पूर्व मैं गांव वाली सम्पत्ति का आखरी निपटारा करने की सोच, पत्नी के मना करने के बाबजूद चला आया था।"
"पत्नी की चिंता का कारण मेरे शुगर और बी.पी का पेशेंट होने की वजह मेरे खाने-पीने की व्यवस्था ले कर था।"
तभी चाचा ने प्यार से मेरी पीठ पर धौल जमाते हुए,
" तुम चलो तो सही घर "
चाचा का उत्साह वही वर्षों पुराने वाला ही था, यह देख कर आंखें भर आई थीं मेरी। मुस्कुरा पड़ा था मैं।
" क्यों चचा सुना अब तो आप दादा भी बन गये हो?"
"अरे, दो पोते ,एक डॉक्टर नातिन का नाना बन गया हूँ मैं "
सुन कर गले में कुछ अटक सा गया।
आपसी संबंधोें की कटुता किस कदर हमें एक दूसरे से दूर कर देती है।
"कैसी विडंबना है न हमारे जीवन की।" "चाची और माँ की आपसी अपरिपक्व व्यवहार ने हमें एक दूसरे से ना सिर्फ शरीर बल्कि मन से भी दूर कर दिया था।"
"उन दो भाईयों के बीच आई दरार ने आंगन में इंट की दीवार खड़ी कर दी "।
जब हम जवान होते हैं, हाथों में ताकत होती है तब कभी नहीं सोचते कि धीरे-धीरे यह शक्ति घटनी है।हमें भी किसी पर एक दिन आश्रित होना पड़ सकता है।
"चाचा मेरी पीठ सहला रहे थे।"
‘‘अपनी चाची से नहीं से मिलोगे क्या? वे तुम्हे देखना चाहती हैं… ’’
मौन स्वीकृति थी मेरे होंठों पर।
‘‘चरण स्पर्श, चाची, पहचाना कि नहीं? " "आवा,आवा गोसाईं "
मुझे इस नाम से सिर्फ़ चाची ही बुलाती।
आज भी उन्हें मेरा संबोधन याद था। आत्मग्लानि होने लगी मुझे।
"जीता रह ",सस्नेह उन्होंने मेरा सिर थपथपाया ।
"बड़ी बेसब्री से तोहरे इंतजार करत रहीं"
फिर तो बातों ही बातों में पूरा दिन एक उत्सव सा बीत गया।
"बीते कड़वे साल मन के किसी कोने में सिमट गए। मानो वह बनवास, मुझे कभी मिला ही नहीं "
"कड़वे पल न उन्होंने याद दिलाए न मैं ने, मगर आपस की बातों से मैं यह सहज ही जान गया था कि वे लोग मुझे भूले कभी भी नहीं थे"।
"फिर मेरी समझ में नहीं आ रहा था, आखिर क्या पाया था हम दोनों परिवार वालों ने अलग-अलग हो कर "
" अचानक लगा सब पुन: जुड़ गया"
शायद चाचा मेरे मन के भाव ताड़ गये थे।
"ऐसा ही तो होता है…और यही जीवन है," तभी हंस कर बोले वे,
" जब इंसान जवान होता है। भविष्य क्या है?
उस से अनजान हम तनमन से कर्तव्य में जुटे रहते हैं, सभी कर्तव्य पूरे करने होते हैं हमें , और हम सांस लिए बिना भी कभी कभी निरंतर चलते रहते हैं।"
" उस पल कभी-कभी अपने सगे भाई-बहनों से भी हम विमुख हो जाते हैं।"
"बेटा, ऐसा सभी के साथ होता है।" लेकिन जीवन की संध्या में हर इंसान अकेला ही रह जाता है। सो अतीत की ओर ही मुड़ जाता है।"
"तुम्हारी चाची भी इसीलिए अतीत को पलटी हैं।"
" मजे की बात बुढ़ापे में पुराने दोस्त और पुराने संबंधी याद भी बहुत आते हैं।"
"सब की पीड़ा एक सी होती है न, इसीलिए एकदूसरे को आसानी से समझ भी जाते हैं, जबकि जवानों के पास बूढ़ों को समझने का समय ही नहीं होता "
"आप का मतलब है संतान से हुआ मोहभंग उन्हें भाई-भतीजों की ओर मोड़ दिया है?" मैंनें बीच में ही टोक दिया उन्हें।
"हां,
" हमारा भरा-पूरा परिवार है। वह सब हमसे दूर और सुखी हैं। "
"अकेलेपन के एहसास ने घेर रखा है उसे। तुम्हारे पिता रहे नहीं, बच्चों के पास हमें देने के लिए समय नहीं सो एक भावनात्मक संबल तो चाहिए न उन्हें… और मुझे भी "
चाचा का इशारा मेरी तरफ था।
" हमारे परिवार दूर हो गये, पर स्नेह का धागा कहीं न कहीं अभी भी हमें बांधे हुए है। यह जान कर मुझे बहुत संतोष हुआ।"
" फिर बुढ़ापे में सोच भी तो परिपक्व हो जाती है न "।
"पीढि़यों का यह चलन पहली बार मुझे अंदर तक कचोट गया।"
"जहां तक हो सके हमें निभाना सीखना चाहिए, तोड़ने की जगह जोड़ना सिखाना चाहिए अपने बच्चों को…" यह सोच मुझे अंदर तक प्रभावित कर गई।
"और अब मैं दो घरों के टूटे तारों को जोड़ने के पूरे प्रयास करूगां।"
यह वाएदा अपने आप से कर चाचा से मिल, लौट कर अपने और उनके घर के बीच में खिंची दीवार ढ़ाहने का निर्णय कर आया हूँ।
स्वरचित /सीमा वर्मा