कहानीलघुकथा
*गौग्रास*
" गौरी बहु, " आज तुम्हारी पहली रसोई है। सुबह जल्दी नहा कर काम शुरु कर देना। और पहली रोटी गौ माता के लिए निकालना मत भूलना।" सासूमाँ ने आदेश दिया। गौरी के लिए ससुराल में सब कुछ नया था। अपने घर में उसने ऐसे कठोर क़ायदे कभी नहीं देखे। हाँ, गाय या कोई माँगने वाला सामने आ जाता तो कभी भूखा नहीं लौटाते। दादी तो बरौनी तक को आते ही चाय नाश्ता कराती। और तो और बिजली आदि सुधारने वालों को भी भूखा नहीं जाने देती।
यहाँ ससुराल में भगवान का भोग लगा गौग्रास ड्योढ़ी पर रख दिया जाता । उसके बाद ही घर के सदस्य मुँह झूठा करते। श्राद्ध के दिन ससुर जी गाय के पीछे भागते रहे। किन्तु किसी गौ माता ने ग्रहण नहीं किया। इस दिन सभी गाएँ तृप्त रहती हैं। इसी चक्कर में ससुर जी अपनी टाँग तुड़ा बैठे।
गौरी की भी आदत में आ गई यह परिपाटी। आश्चर्य यह कि गौग्रास सचमुच ग्रहण किया जाता है।
उसने निगरानी में पाया कि एक बच्चा आकर गौमाता का भोग ले जाता है। हाँ, भूले भटके गाय माता आ जाती तो उन्हें भी वह भूखा नहीं लौटाती। और उसी दिन से गौरी भरपूर गौग्रास रखने लगी।
सरला मेहता
इंदौर
स्वरचित