कहानीप्रेम कहानियाँ
"तुम्ही से शुरु तुम्ही पर खत्म "
मित्रों इसे आप नाकारात्मक सोच कह सकते हैं। परंतु यह मेरी अनुभव आधारित कहानी है। जो देखा,जाना और समझा है उसे ही लिख दिया...।
घर में बने मंदिर के सामने दोनों हाँथ जोड़े सिर झुकाए बैठी हिमाद्रि होठों में बुदबुदा रही ,
"हे ईश्वर तू मुझसे पहले इन्हें उठा लेना, कहती हुई दांत से जीभ काट लेती है"
पलको की कोर पर अटके एक बूंद आंसू टपक पड़े।
यह उसके प्यार की इंतेहा है।
हिमाद्रि और सुधीर की यह कहानी किसी फिल्म से कम नहीं जब अपनी पसंद के सुधीरजी से शादी करने वह पिता द्वारा तय किये रिश्ते को नकार कर वह दरवाजे पर आई बारात को नकार कर घर से निकल गई थी। और उसकी जगह उसकी छोटी बहन ने विवाह मंडप में फेरे लिए ...थे।
खैर...
सुधीर ने उसके इस निर्णय का बुझे दिल से स्वागत किया है। वह हिमाद्रि को चाहता तो बहुत है पर इस तरह के विवाह की कल्पना कभी नहीं की थी।
वे नरम दिल के हैं। जब कि हिमाद्रि ढृढ़ निश्चय वाली।
बहरहाल उन दोनों ने साथ-साथ हाँथ पकड़ जो आगे कदम बढाये तो फिर मुड़ कर पीछे नहीं देखा।
प्रथम रात्रि में ही सुधीर ने हिमाद्रि के पाँव में नयी पायल डाल उसे तमाम उम्र के लिए खुद से बाँध लिया।
उनके बीच का प्यार बारम्बार छलक-छलक उठा है। जिसके फलस्वरूप जीवन की बगिया में तीन पुष्प खिले। फलती-फूलती उनकी गृहस्थी में आए तमाम झंझावात को उन्होंने मिलकर झेला है।
लेकिन जब बच्चे बड़े हो अपनी दुनिया में डूब उनकी तरफ से लापरवाह होने लग कर गृहस्थी में मगन होने लगे।
तब नरम दिल सुधीर झेल नहीं पाए। पर हिमाद्रि तो चट्टान है। विपरीत हवाओं से भी टकरा कर चूर नहीं होती।
यह सोच कर कि अपने हिसाब से चलने में दिक्कत नहीं होती जितनी कि दुनिया और परिवार के रस्मों रिवाज के हिसाब से उसने बच्चों को इजाजत दे दी है।
अपने मन मुताबिक अलग नीड़ बनाने की।
रिश्ते बिखरने को हैं जिसे सुधीर किसी भी स्वीकार नहीं कर पा रहे।
वे दुनियादारी के हिसाब से कच्चे निकले, एक साथ ही हृदयाघात और पक्षाघात के शिकार हो गए।
आज नौ वर्ष हो गए। उन्हें बिस्तर पर गिरे हुए। उनके सारे काम-काज हिमाद्रि के भरोसे चल रहे हैं। शुरु में तो ठीक हो जाने की आस थी। पर अब वो भी निराश हो चुके हैं।
हिमाद्रि जी जान से उनकी सेवा करती है। बच्चों की तरह गंदगी साफ सफाई से ले कर नहलाना , खिलाना ,पानी ,चाय सभी कुछ तो। अब यही उसकी दिनचर्या है। सुधीर के साथ ही वह जैसे अपनी भी सुध-बुध खो बैठी है। उसकी उम्र अब सत्तर पार कर रही है।
अत्यधिक श्रम से धीरे-धीरे वह जलते दिये की मानिंद चुकती जा रही है। उसे लगता है।
"बूढी होती जा रही उसकी हड्डियों में अब इतनी ताकत नहीं बच रही कि सुधीर की साज-संभाल वह ज्यादा कर पाएगी"।
यही सोचती रहती है,
"अगर मुझे कुछ हो गया तो सुधीर कैसे रहेगें "?।
और जा कर भगवान से प्राथना करने लगती है,
" सुधीर के साथ ही मुझे भी उठा लो भगवान"।
सीमा वर्मा
अत्यंत संवेदनशील और मर्मस्पर्शी रचना... जीवन के कटु सत्य..!
जी हार्दिक धन्यवाद सर 🙏🏼🙏🏼