कहानीसामाजिक
सत्य घटना आधारित
#शीर्षकः
"हमारी जिज्जी"
ट्रिन... ट्रिन... सुबह आठ बजे ही घर के लैंड लाइन फोन की घंटी घनघना उठी थी। सर्दियों के दिन थे। कुनमुनाते हुए उठ प्रशांत जी ने फोन उठाया।
उधर से थरथराती हुयी आवाज ,
"भैया मैं शुभदा"
"कौन , कौन शुभदा जिज्जी "?।
कानों पर सहज ही विश्वास नहीं हुआ फिर पूछा ,
"कौन जिज्जी? हमारी शुभदा जिज्जी"?
इस बार उधर से गंभीर पुरुष आवाज ,
" सर ,प्रणाम ये आपकी बहन शुभदा उंराव हैं,
मैं भरतपुर मानसिक आरोग्य शाला से बोल रहा हूँ। ये हमें विगत तीन वर्ष पहले मिली थीं। यंही आस-पास घूमती हुई। बेहद डरी हुईं थीं उस वक्त"।
" यह तो ईश्वर की कृपा कि अस्पताल के निकट ही इन्हें हमारे स्टाफ ने देख लिया और बातों में बहला कर यहाँ ले आया। उस समय से ही हमारे यहाँ इनका इलाज चल रहा था "।
उस समय तो यह मानसिक रूप से बीमार थीं। लेकिन सर अब ये पूर्ण रूप से स्वस्थ्य हैं।
स्वस्थ्य होने पर इन्होंने आपका ही नम्बर और पता दिया है ।
हृदयनाथ की आंखो से अविरल आंसू निकल रहे हैं।
और वो जिज्जी , जिज्जी... करते वहीं सोफे पर बैठ गए।
उपर से खामोश रह कर भी मन दूर कंही बहुत दूर चला गया... था...।
बिल्कुल सहज और सुन्दर आचार - विचार वाली उनकी जिज्जी का ब्याह प्रशांत जी के पिता के जीवनकाल में ही बहुत धूमधाम से सम्पन्न हुआ था।
उन दोनों की माँ तो बचपन में ही गुजर गई थीं। सो जिज्जी की हाँ या ना सुनने की जरूरत किसी ने भी नहीं समझी। प्रशांत जी तो बहुत छोटे ही थे।
शादी के काम-काज संभालने गांव से चाची आई थीं।
चाची की सीख थी ,
"पहले पिता और फिर पति हमारा अच्छा बुरा बेहतर समझते हैं"।
"वे जो भी फैसला लें हमें मानना चाहिए , उनकी मर्जी हुक्म होती है। उनका अपमान ईश्वर का अपमान होता है "।
फलाना... फलाना... बेमानी सी सीख को आंचल में बांध जिज्जी चुपचाप रोती हुई ससुराल चली गईं थी।
आरम्भ में तो सब कुछ ठीक ही चल रहा था।
मैं अक्सर उनसे मिलने चला जाया करता पर मुझे अब वो पहले वाली जिज्जी नहीं मिलतीं।
फिर अचानक से जीजा का व्यवहार उनके प्रति बदलने लगा था न जाने क्यों?
और जिज्जी धीरे-धीरे मानसिक अवसाद में घिरने लगीं।
बाद मेंं तो उनकी याददाश्त भी गुम होने लगी।
मैं उनके ससुराल जाता रहता था। उनसे मिलने पर लाख प्रयत्न करने पर भी वो कुछ नहीं बतातीं। और जो बताती भी तो इस कदर टूटा-फूटा कि मेरे पल्ले कुछ नहीं पड़ता।
वे उखड़ी-उखड़ी मुझसे ही पूछ बैठती,
"माफ करना भाई ,
तुम्हें तो मैं पहचानती नहीं कहाँ रहते हो तुम" ?
यों उपर से वो सामान्य थीं। पर एक बार जो कीड़ा उनके दिमाग में घुस जाता वह सदा रेंगता रहता और आसानी से निकलता नहीं।
मैंने उनको अपने साथ घर ले जाना चाहा था पर इसके लिए उनके ससुराल वाले कतई तैयार नहीं थे।
फिर बाद में मैं अक्सर जाने लगा उनके सानिध्य में रह मुझे सुकून मिलता।
उस आखिरी बार तो वे मेरे हाँथ पकड़ बोलीं ,
" सुनो भाई मैं बीमार हूँ तुम मेरे भाई को खबर कर दोगे क्या कहाँ रहते हो तुम "?
बस वही अन्तिम मुलाकात थी, मेरी अपनी जिज्जी से। अचानक एक दिन उनके ससुराल से खबर आई , कि वह घर छोड़ निकल गई हैं। ना जाने किधर के लिए?
ससुराल वालों ने और स्वयं जीजा ने भी बहुत ख्याल नहीं किया। उनके लिए तो मानो बला टली थी।
बाद में उड़ती खबर मिली, जीजा के असंतुलित व्यवहार और उन दोनों की निजी जिंदगी में उनकी बड़ी भाभी के अवांछित ,अनावश्यक हस्तक्षेप से जिज्जी परेशान रहतीं।
मुझे अब यह एहसास होता,
" काश उस दिन मैं उन्हें अपने साथ जबर्दस्ती ले आता तो...?
और इस अपराध बोध से ग्रस्त हो कर मैं उनको न जाने कहाँ २ ढूंढने की कोशिश करता रहा पर उनको नहीं मिलना था। जब तक , तब तक नहीं मिलीं।
और आज... सुबह इस तरह अचानक उनकी आवाज सुन कर मुझ पर क्या बीती, इसका अंदाजा लगा पाना इतना सहज नहीं होगा किसी के लिए भी।
उनके साथ बने रहने का एहसास मुझमें अब भी तिनका-तिनका बना हुआ था।
मैं निराश जरूर हो गया था पर उम्मीद का दामन अभी भी नहीं छोड़ा था मैंने।
वो दिन और एक आज का दिन दिल उत्साह से भर गया है।
जिज्जी के मष्तिष्क ने एक बार फिर दिल से दोस्ती कर ली है।
आवाज तो पूर्णतः स्वस्थ एवं भली-चंगी लग रही थी।
प्रशांत जी ने दोनो हाँथ जोड़ ईश्वर को धन्यवाद दिया।
स्वरचित/सीमा वर्मा
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